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सूत्र २०-२३
लिसो
उ० गोधमा ! ण कयावि णासि, ण कयावि णत्थि, ण कयावि न भविस्सह ।
भुवि च भवति य, भविस्सति य, धुवा नियया सासया अक्खया अव्वा अवट्टिया णिच्चा पउमवरवेदिया । -जीवा० प० ३, उ०१, सु० १२५
वणसंडपमाणं२१. ती जगती उहि परबेहयाए - एत्य णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते। देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं जयतीसमए परिषये।"
-जीवा० प० ३, उ०१, सु० १२६
वणसंडवण्णओ२२. किन्होमा जानीले मोलोमासे, हरिए हरिओ मासे सीए, सीओोमासे, जि, ोिभासे लिये, तियोमासे णिद्धे, गिद्धोभासे,
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किन्हे छाए, नीले, मीलन्छाए हरिए, हरियच्छाए सीए, सीयच्छाए, णिद्वे, गिद्धच्छाए, तिब्वे, तिव्बच्छाए, refseछाए, रम्मे, महामेहणिकुरंबभूए ।
२३. तेणं पायवा मूलमंतो, कंदमंतो, बंधमंतो, तयामंतो, सालमंतो, बालमंगो, पत्तमंलो, पुष्कमंतो, फलमंतो बीयमंतो अणुपुष्यिसुजातरुल भावपरिणया, एगसंधी, अगसाहत्य साहबिडिमा, अमेयनरवामप्पसारिया पण विउल-बट्ट धा, अपा, अविरतपत्ता, अवाईपपत्ता अगला गिजर पंडुरपत्ता, गव-हरिअ-भिसंतपत्तमारंधयार गिद्धूयजरढ
भोरनि उवविणिग्गय – नवतरुणपत्तपल्लव कोमल चलकिसलय मुकुमापाल सोभियबरकुरण सिहरा ।
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गणितानुयोग
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उ० गौतम ! पद्मवरवेदिका कभी नहीं थी – ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और कभी नहीं रहेगी, ऐसा भी नहीं है । वह सदा थी, है, और रहेगी। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है ।
वनखण्ड का प्रमाण
२१. उसी के ऊपर पदमवरवेदिका के वाह्य प्रदेश में विशाल वनखण्ड कहा गया है। इसका चक्रवाल विष्कम्भ कुछ कम दो योजन का है और उसकी परिधि जगती के सदृश है ।
१ जंबु-वक्ख ०१, सु० ५ । सूत्र के अन्त में "वणसंडवग्णओ णेयव्वो" संक्षिप्त वाचना की यह सूचना है ।
वनखण्ड का वर्णन -
२२. वह वन कृष्ण है और कृष्ण रूप से अवभासित होता है, यावत् (नीला है, नील रूप से प्रतिभासित होता है, हरा है एवं हरित रूप से इसका प्रतिभास होता है, शीतल है और शीतल स्पर्श रूप से प्रतिभासित होता है, स्निग्ध है और स्नावभास रूप है, तीव्र है और तीव्र रूप से अवभासित-प्रतीत होता है । (वृक्षों की छाया कृष्ण होने से वह बनकृष्ण है, (वृक्षों की) छाया नीली होने से वह वन नीला है, (वृक्षों की ) छाया ही होने से वह वन हरा है, ( वृक्षों की) छाया शीतल होने से वह वन शीतल है, (वृक्षों की) छाया स्निग्ध (गहरी ) होने से वह वन स्निग्ध (गहरा ) है, (वृक्षों की) छाया तीव्र होने से वह वन तीव्र है । विविध वृक्षों की शाखा प्रशाखायें परस्पर में प्रविष्ट होने से सघन छायावाला है, रमणीय है, और जलभार से अवनत हुए. महामेघों के समूह जैसा प्रतीत होता है ।
२३. इस वनखण्ड के वृक्ष मूल (जड़) वाले हैं, प्रशस्त कन्दवाले हैं, स्कन्धवाले हैं, त्वचा छाल वाले है, युक्त है, प्रवालयुक्त है, पत्र, पुष्प, फल और बीज युक्त है, एवं समस्त दिशा-विदिशाओं में अपनी शाखा प्रशाखाओं द्वारा इस ढंग से फैले हुए हैं कि वर्तुलाकार (गोल) प्रतीत होते हैं। ये सब एक
है और अनेक शाखा प्रशाखाओं से जिनके मध्य भाग का विस्तार अधिक है, अनेक पुरुषों के द्वारा मिलकर फैलाये गये अपने व्याम (दोनों बाहू) द्वारा जिसे ग्रहण नहीं कर सकते हैं, ऐसा निविद विस्तीर्ण इनका गोल स्कन्ध है, इनके पत्र छिद्र रहित हैं, अविरल पत्रवाले हैं, इनके पत्रों में अन्तराल नहीं हैं, वायु से अनुपहत पत्रवासे हैं, जो पत्र जीगं-पुराने और सफेद हो जाते हैं उनको वायु द्वारा उड़ाकर अन्यत्र फेंक दिया जाता है, नवीन हरे-हरे पत्र समूह से दैदीप्यमान, घनान्धकार से आच्छादित एवं दर्शनीय है, तथा सुन्दर अंकुरों के अग्रभाग से निरन्तर निकलते हुए नये ताजा पत्तों से और कोमल मनोज्ञ उज्ज्वल कम्पमान किसलयों से एवं सुकुमाल वालों से गोवमान बने रहते हैं ।