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________________ १२८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र १८-२० लवइयाओ, णिच्चं थवइयाओ, णिच्चं गुम्मियाओ, णिच्चं नित्य स्तवकित (गुच्छेयुक्त) रहती है। नित्य गुल्मित (गुल्मयुक्त) जमलियाओ, णिच्चं जुअलियाओ, णिच्चं विणमिणओ, रहती हैं, नित्य यमलित रहती है, नित्य युगलित रहती हैं, नित्य णिच्चं पणमियाओ णिच्चं सुविभत्त पिंडमंजरि वसिगधरीओ विनमित रहती हैं, नित्य प्रणमित रहती है, नित्य सुविभक्त सम्वरयणामईओ अच्छाओ-जाव-पडिरूवाओ।' पिण्डमंजरी रूप अवतंसक धारण करने वाली हैं, सर्वरत्नमय है [तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे (उस पद्मवरवेदिका के अनेक स्थानों पर अक्षत स्वस्तिक अक्खयसोत्थिया पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा-जाव- कहे गये हैं। सब रत्नमय है, स्वच्छ हैं-यावत्-प्रतिरूप हैं ।....). पडिरूवा।] -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२५ पउमवरवेइयाणामस्स हेउ पद्मवरवेदिका के नाम का हेतु१६. ५० से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ--'पउमवरवेइया, पउम- १६. प्र० भगवन् ! पद्मवरवेदिका, पद्मवरवेदिका क्यों कही वरवेइया ? जाती है? उ० गोयमा ! पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहि उ०—गौतम ! पद्मवरवेदिका की अनेक वेदिकाओं पर वेदियासु वेदियाबाहासु वेदियासीसफलएसु वेदियापुडंत- वेदिका-पाश्वों पर, वेदिका शीशफलकों पर, दो वेदिकाओं रेसु खंभेसु खंभबाहासु खंभसीसेसु खंभपुडंतरेसु सूईसु के मध्य भागों पर, स्तम्भों पर, स्तम्भ पावों पर, स्तम्भ-- सूईमुहेसु सूईफलएसु सूईपुडतरेसु पक्खेसु पक्खबाहासु मस्तकों पर, दो स्तम्भों के मध्य भागों पर, सूचियों पर, पक्ख पुडतरेसु बहूई उप्पलाइं-जाव-सतसहस्सपत्ताई सूचिमुखों पर, सूचीफलकों पर, दो सूचियों के मध्य भागों पर, सव्वरयणामयाइं अच्छाई-जाव-पडिरूवाई। (वेदिका के) पक्षों (भागों) पर (वेदिका के) पक्षवाहों (विभागों) पर, विभागों के मध्य भागों पर अनेक उत्पन्न-यावत्-शत सहस्र पत्र सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं-यावत्-प्रतिरूप है।' महया महया वासिक्कछत्तसमाणाइं पण्णत्ताइ समणा- आयुष्मान् श्रमणो ! यह वर्षाकाल में बनाई हुई बड़ी-बड़ी उसो ! छतरियों के समान हैं। से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-पउमवरवेइया, गौतम ! इस कारण से पद्मवरवेदिका, पद्मवरवेदिका कही पउमवरवेइया। जाती हैं। पउमवरवेइयाए सासया-ऽसासयत्तं पद्मवरवेदिका शाश्वत और अशाश्वत२०. ५० पउमवरवेइया णं भंते ! कि सासया असासया ? २०. प्र०-भगवन् ! पदमवरवेदिका शाश्वत हैं या अशाश्वत ?' उ० गोयमा ! सिय सासया, सिय असासया । उ०-गौतम ! कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत है ? प० से केपट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय सासया सिय प्र०-भगवन् ! किस हेतु से कहा जाता है कि (पद्मवरअसासया।' वेदिका) कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है ? उ० गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासया, वण्ण-पज्जवेहिं गंध-पज्ज- उ० --गौतम ! द्रव्यों की अपेक्षा से (पद्मवरवेदिका) शाश्वत वेहि रस-पज्जवेहि फास-पज्जवेहि असासया । है। वर्ण-पर्यायों से, गंध-पर्यायों से, रस-पर्यायों से और स्पर्श पर्यायों से अशाश्वत है। से तेणटुंणं गोयमा ! एवं वुच्चइ–'सिय सासया, सिय गौतम ! इस कारण से (पद्मवरवेदिका) कथंचित् शाश्वत है असासया।" और कथंचित् अशाश्वत है-ऐसा कहा जाता है ।.... प० पउमवरवेइया णं भंते ! कालओ केवञ्चिरं होइ? प्र०-भगवन् ! पद्मवरवेदिका काल की अपेक्षा से कब तक है ? १ " णिचं कुसुमिय-मउलिय-लवइया-पवइय-गुलइय-गुच्छिय-जमलिय-जुअलिय-विण मिअ-पणमिअ-सुविभत्त पिंडमंजरिवडिस गधरीओ" यहाँ समासान्त पाठ भी है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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