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________________ सूत्र १५.१८ तिर्यक् लोक गणितानुयोग १२७ पउमवरवेइयाए वित्थरओ वण्णणं पद्मवरवेदिका का विस्तृत वर्णन१५. तीसे णं पउमवरवेइपाए अय मेयारूवे वण्णावासे पण्णते, तं १५. उस पद्मवरवेदिका का विस्तृत वर्णन इस प्रकार कहा गया जहा-वरामया नेमा, रिट्ठामया पइट्ठाणा, वेरुलियामया, है-यथा-उसके नेम मूल वज्रमय है। प्रतिष्ठान (मूल पाये) खंभा, सुवण्णरुप्पमया फलगा; वइरामया संधी, लोहितक्खमईओ रिष्ट रत्नमय हैं । स्तम्भ वैडूर्यमय हैं। फलक स्वर्ण-रजतमय हैं । सूईओ, णागामणिमया कलेवरा णाणामणिमया कलेवर- संधियाँ वज्रमय हैं। सूचियाँ लोहिताक्ष (रत्न) मय हैं। कलेवर संघाडा, णाणामणिमया रूवा, णाणामणिमया रूवसंघाडा, (मनुष्य शरीर) एवं कलेवरयुग्म (दो मनुष्य शरीर) नाना अंकामया पक्खा, पक्खबाहाओ, जोइरसामया वंसा, वंसक- मणिमय हैं। पक्ष एवं पक्षबाहु अंकरत्नमय हैं । वांस (पृष्ठवंश) वेल्लुपा य, रययामईओ पट्टियाओ, जातरूवमयीओ ओहाड- और बंशकवेल्लुक ज्योतिरस नामक रत्नमय हैं। पट्टिकायें (पृष्ठ णीओ, वइराम पीओ उवरि पुछणीओ सम्वसेए रययामते वंशों के ऊपर की कम्बायें) रजतमय हैं। अवघाटनी (ढकनी) साणं छादणे। जातरूप स्वर्ण की हैं। पोंछनी (पोंछने का उपकरण) बमय है । पद्मवरवेदिका के ऊपर का आच्छादन श्वेत रजतमय है । १६. साणं पउमवरवेइया एगमे गेणं हेम-जालेणं, एगोगेणं गवक्ख- १६. वह पद्मवरवेदिका एक-एक हेमजाल से, एक-एक गवाक्ष जालेगं, एगमेगणं खिखणी-जालेणं, एगमेगेणं घंटा-जालेणं, जाल से, एक-एक किंकिनी (छोटी घंटी) जाल से, एक-एक घंटा एगमेगणं मुत्ता-जालेणं, एगमेगेणं मणिजालेणं, एगमेगेणं जाल से, एक-एक मुक्ताजाल से, एक-एक मणि-जाल से, एक-एक कणग-जालेणं, एगमेगेणं रयण-जालेणं, एगमेगेणं पउमवर- कनकजाल से, एक-एक रत्नजाल से, एक-एक सर्वरत्नमय जालेग, सव्वरयणामएणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता। पद्मवरजाल से सब ओर से अर्थात् चारों ओर से घिरी हुई है। १७. ते णं जाला तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया, णाणा- १७. वे जाल तपनीय (स्वर्णमय) लंबूसक (झूमके) वाले हैं । स्वर्ण मणिरयण विविहहारद्धहारउवसोभितसमुदया ईसि अण्णमण्ण- के पतरे से मंडित हैं। उनके समूह नाना प्रकार के मणिरत्नों से मसंपत्ता पुवावरदाहिण उत्तरागतेहिं वाहि मंदागं मंदागं और विविध प्रकार के हार तथा अर्धहारों से सुशोभित है । एज्जमाणा एज्जमाणा कंपिज्जमाणा कंपिज्जमाणा लंबमाणा वे (लंबूसक) एक-दूसरे से कुछ दूरी पर हैं । पूर्व-पश्चिम-दक्षिण लंबमाणा पझंझमाणा पझंझमाणा सद्दायमाणा सद्दायमाणा और उत्तरदिशा से आये हुए वायु से मन्द-मन्द डोलते हुए, तेणं ओरालेणं मणुण्णेणं कण्णमगणेव्वुत्तिकरेणं सद्दणं सव्वओ कम्पित होते हुए, लटकते हुए, आवाज करते हुए एवं गंजते हुए समंता आपूरेमाणा सिरीए अतीव उवसोभेमाणा उवसोभे- हैं । उस उदार मनोज्ञ कर्ण एवं मन को आनन्द देने वाले शब्द माणा चिट्ठन्ति । से सब दिशाओं को पूरित करते हुए तथा श्री से अतीव शोभित होते हुए स्थित हैं। १८. तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ से तहि तहिं बहवे १८. उस पद्मवरवेदिका के अनेक स्थानों पर अनेक अश्वयुगल हय-संघाडा, गय-संघाडा, नर-संघाडा, किण्णर-संघाडा, गजयुगल, नरयुगल, किंनरयुगल, किंपुरुषयुगल, महोरगयूगल, किरिस-संघाडा, महोरग-संघाडा, गंधव-संघाडा, वसह- गंधर्वयुगल, वृषभयुगल बने हैं, जो सवंरत्नमय स्वच्छ हैं-यावत् संघाडा सवरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। -प्रतिरूप हैं। तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहि हयपंतीओ उस पद्मवरवेदिका के अनेक स्थानों पर अनेक अश्वपंक्तियाँ तहेव-जाव-पडिरूवाओ। -यावत्-प्रतिरूप हैं। तीसे गं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहि हयवीहीओ उस पद्मवरवेदिका के अनेक स्थानों पर अनेक अश्व वीथियाँ तहेव-जाव-पडिरूवाओ। हैं-यावत् -प्रतिरूप हैं। तीसे गं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहि हयमिहुणाई उस पद्मवरवेदिका के अनेक स्थानों पर अनेक अश्वमिथन तहेव-जाव-पडिरूवाई। हैं-यावत्-प्रतिरूप हैं। तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे उस पद्मवरवेदिका के अनेक स्थानों पर अनेक पदमलतायें, पउमलयाओ. णागलयाओ. असोगलयाओ, चंपगलयाओ, नागलतायें, अगोकलतायें चंपकलतायें, चत (आम्र) लतायें, वणलयाओ, वासंतीलयाओ, अतिमुतगलयाओ, कुण्डलयाओ, श्यामलतायें हैं जो नित्य कुमुमित रहती हैं, नित्य मकुलित सामलयाओ, गिच्चं कुसुमियाओ, णिच्चं मउलियाओ, गिच्च (कलिकायुक्त) रहती है, नित्य लवयित (पल्लवित) रहती है,
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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