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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक
सूत्र २३
-णिच्चं कुसुमिया, णिच्चं मउलिया, णिच्चं लवइया, णिच्चं -ये वृक्ष सदा कुसुम (पुष्प) युक्त रहते हैं, ये वृक्ष सदा मुकुल थवइया, णिच्चं गुलइया, णिच्चं गुच्छिया, णिच्चं जमलिया, (अधखिली कलियों से) युक्त हैं, ये वृक्ष सदा पल्लव (पत्र) युक्त णिच्चं जुअलिया, णिच्चं विणमिआ, णिच्चं पणमिया । हैं, ये वृक्ष सदा स्तबक (फूलों के गुच्छों से) युक्त हैं, ये वृक्ष सदा
गुल्म (ऐसे पौधे जिनकी शाखाओं से) युक्त है, ये वृक्ष सदा गुच्छों, (फूलों के समूह से) युक्त है, ये वृक्ष सदा यमलों (जुड़वाँ वृक्षों) से युक्त हैं, ये वृक्ष सदा युगल (दो समान वृक्षों) से युक्त है, ये वृक्ष सदा फलों के भार से झुके हुए रहते हैं ये वृक्ष सदा फलों के भार
से अत्यधिक झुके हुए रहते हैं। -णिच्चं कुसुमिय-मउलिअ-लवइअ-थवइअ-गुलइअ-गोच्छिअ- ये वृक्ष सदा कुमुमित-मुकुलित-पल्लवित-स्तबकित- गुल्मितजमलिअ-जुअलिअ-विणमिअ-पणमिअ-सुविभत्तपडिमंजरिव- गुच्छित-यमलित-युगलित विनमित एवं प्रणमित रहते हैं, जिससे डिसयवरा, सुअ-वरहिण-मयणसलाग-कोइल-कोरग-भिंगारग- ये वृक्ष सुविभक्त प्रतिमंजरी रूप अवतसक (आभूषणों) को धारण कोंडलक-जीवंजीवग-गंदीमुह-कविल-पिंगलक्खग-कारंडव- किये रहते हैं, इन वृक्षों पर शुक-मयूर-मदनशालाका-मैना-कोयलचक्कवाय-कलहंस-सारस-अणेगसउणगणविरइअ-सब्दुन्नइआ कुरवक-भिंगारक-कुण्डलक-चकोर-नन्दीमुख-कपिल-कपिजनमहरसरणाइआ, सुरम्मा, सपिडिअ दरिअ भमर-महुअरिपहकर कारण्डक चक्रवाक-कलहंस-सारस आदि अनेक पक्षियों के समूह परिलित-मत्तछप्पय-कुसुमासवलोल-महुरगुमगुमेंत-गुजतदेस- बैठे-बैठे दूर तक सुने जा सकें ऐसे उन्नत मधुरस्वरोपेत ध्वनि से भागा, अभितर पुप्फफला, बाहिरपत्तछन्ना,
चहचहाते रहते हैं, इन वृक्षों पर मधु का संचय करने वाले उन्मत्त हुए पिंडीभूत भ्रमरों और भ्रमरियों का समूह बैठा रहता है और मधुपान में लीन होने से मदोन्मत्त पुष्पपराग का पान करने में लंपट षट्पद-भ्रमरों की मधुर गुनगुनाहट से जिनके देशभाग गूंजते रहते हैं, जिनके पुष्प और फल उन्हीं के भीतर छिपे रहते है,
और वाहर में पत्रों से आच्छादित रहते हैं। -पुप्फेहि फलेहि य उच्छन्न-पलिच्छन्ना, जीरोअया अकंटया, ये वृक्ष सदैव उत्पन्न होने वाले पुष्पों और फलों से परिव्याप्त साउफला, णाणाविहगुच्छ-गुम्म-मडंवगसोहिया, विचित्तसुह- रहते हैं, ये वृक्ष निरोग-रोगरहित, अकंटक-काँटोंरहित हैं, इनके केउभूया, वावी-पुक्खरिणी-दीहिया-सुनिवेसियरम्मजालधरगा, फल सुस्वाद-मिष्ट स्वाद वाले हैं, अनेक प्रकार के गुच्छों, गुल्मों पिडिमनीहारिम-सुगंधि-सुहसुरभि मणहरं महया च गंधद्धणि और लता आदि के मंडपों से सुशोभित है, इनके ऊपर अनेक मुअंता, सुहसेउकेउबहुला,') अणेग सगड-रह-जाण-जुग्ग- प्रकार की चित्र-विचित्र, सुन्दर ध्वजायें फहराती है, अच्छी तरह सिबिह-संदमाणिआ, पविमोअणा-जाव-पडिरूवा। से जिन्हें सींचने के लिये वाटिकाओं में, पुष्करिणियों में, दीपिकाओं -जीवा०प०३, उ०१, सु० १२६ में सुन्दर जालगृह बने हुए हैं। ये वृक्ष निरन्तर अन्य गंधों से भी
विशिष्ट और मनोहर सुगंध को निरन्तर पिंडरूप से छोड़ते रहते है कि जिससे घ्राणेन्द्रिय तृप्त हो जाती है, इनके अलावा क्यारियाँ शुभ हैं और इनके ऊपर जो ध्वजायें लगी है वे भी अनेक रूप वाली है और जिनके नीचे अनेक शकट-गाडे रथ-यान युग्म-शिविका (पालखी) स्यन्दमानिका आदि वाहन ठहरते रहते हैं, स्वच्छ निर्मल -यावत्-प्रतिरूप है।
१ जीवाभिगम का पाठ इस प्रकार है.---"किण्हे किण्होभास जाव-अणेगसगड-रह-जाण-जुग्गपरिमोयणे पासातीए सण्हे लण्हे घट्टे मछे नीरए निप्पंके निम्मले निक्कडच्छाए सप्प समिरीए स उज्जोए पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे ।
-जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२६ यहाँ “जाव" से सूचित पाठ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्ष० १, सूत्र ५ की टीका से उद्धत किया है। टीकाकार ने यह वनखण्ड वर्णन औपपातिक सूत्र से लिया है। टीकाकार का कथन इस प्रकार है-"वनखण्ड वर्णकः सर्वोप्यत्र प्रथमोपाङ्गतो नेतव्यः ।
ऊपर जाव से आगे का पाठ जीवाभिगम का नहीं दिया है क्योंकि जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के पाठ से ही अभिप्राय की पूर्ति होती है ।