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सूत्र २४-२५
तिर्यक् लोक
गणितानुयोग
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वणसंडस्स समतलो भूमिभागो
वनखंड का समतल भूमि भाग२४. तस्स णं वणसंडस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते २४. इस वनखण्ड का अन्तर्वर्ती भूमिभाग मुरज नामक वाद्य पर
से जहा नामए-आलिंगपुक्खरेइ वा, मुइगपुक्खरेइ वा, मंढे हुए चर्म जैसा समतल है, अथवा मृदंग नामक वाद्य पर मंढे सरतलेइ वा, करतलेइ वा, आयंसमंडलेइ वा, चंदमंडलेइ वा, हुए चर्म जैसा समतल है, अथवा सरोवर के ऊपर के तलभाग सूरमंडलेइ वा, उरभचम्मेइ वा, उसभचम्मेइ वा, वराह- जैसा सम है, अथवा करतल (हथेली) के समान है अथवा दर्पण चम्मेइ वा, सोहचम्मेइ वा, वग्घचम्मेह वा, विगचम्मेइ वा, के समान है, अथवा चंद्रमंडल के समान है, अथवा सूर्यमंडल के दीवितचम्मेइ वा, अणेग संकुकीलए सहस्सवितते । समान है, अथवा अनेक तीक्ष्ण नुकीली हजारों कीलों को लगाकर आवड-पच्चावड-सेढी-पसेढी-सोत्थिय-सोवत्थिय-पूसमाण-वड- फैलाये गये उरभ्र (घंटा) चर्म के समान है, अथवा वृषभचर्म के माण-मच्छंडक-मकरंडक-जार मार फुल्लावलि-पउमपत्तसागर समान है, अथवा बराह (सुअर) के चमड़े के समान है, अथवा तरंग, वासंतिलय-पउमलय-भत्तिचिहि सच्छाएहि समिरी- सिंह के चर्म के समान है, अथवा व्याघ्र चर्म के समान है, अथवा एहि सउज्जोएहि जाणाविह पंचवणेहि तणेहि य मणिहि य वृक (भेड़िया) के चर्म के समान है, अथवा दीपडा (चीता) के उवसोहिए। तं जहा-किण्हेहि-जाव-सुक्किलेहि। चर्म समान है, तथा आवर्त-प्रत्यावर्त, श्रेणी-प्रश्रेणी, स्वस्तिक -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२६ सौवस्तिक, पुष्प, वर्धमानक (सकोरा), मत्स्याडक, मकरांडक,
जार-मार आदि रचनाओं से युक्त एवं पुष्पावलि पद्मपत्र, सागर तरंग, बासंतीलता आदि के पृथक्-पृथक् चित्रों से शोभित सुन्दर कांति से कांतिमान किरणजाल सहित, उद्योत से युक्त, पंचवर्ण वाले तृणों और नाना प्रकार की मणियों से उपशोभित है, यथा
कृष्णवर्ण-यावत्-शुक्लवर्ण है। किण्हतण-मणीण इट्टयरे किण्हवण्णे
कृष्णतृण-मणियों का इष्टतर कृष्णवर्ण२५. ५० तत्थ णं जे ते किण्हा तणायमणी य, तेसि गं भंते ! २५. प्र० हे भगवन् ! उनमें जो कृष्णवर्णवाले तृण और मणियाँ
अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहा नामए- है, उनका वर्णविन्यास क्या इस प्रकार का कहा गया है ? यथाजीमतेति वा, अंजणेति वा, खंजणेति वा, कज्जलेति वा, मेघों की कृष्ण घटाओं के समान, अथवा अंजन के समान अथवा मसीह वा, मसीगुलियाइ वा, गवलेइ वा, गवलगुलियाइ खंजन के समान अथवा काजल के समान अथवा मसि (स्याही) वा, भमरेति वा, भमरावलियाति वा, भमर पत्तगय- के समान अथवा मसिगुटिका के समान अथवा गवल (भैसे का सारेति वा, जंबुफलेति वा, अद्दारिद्रुति वा, परिपुट्टएति सींग) के समान, अथवा गवल गुटिका (भैस के सींग का अंतर्वर्ती वा, गएति वा, गयकलमेति वा, कण्हसप्पेइ वा, कण्ह- भाग) के समान अथवा भ्रमर के समान अथवा भ्रमर पंक्ति केसरेइ वा, आगासथिग्गलेति वा, कण्हासोएति वा, (समूह) के समान अथवा भ्रमर के पंखों के अन्दर के भाग के कण्हकणवीरेइ वा, कण्ह बंधुजीवएति वा-भवे एयारवे समान अथवा जम्बूफल (जामुन) के समान अथवा कोमल काक सिया?
पक्षी के समान अथवा कोयल के समान अथवा गज (हाथी) के समान अथवा गज-कलभ (हाथी का बच्चा) के समान अथवा कृष्ण सर्प के समान अथवा कृष्ण केशर (वकुलवृक्ष) के समान अथवा आकाश थिग्गल (मेघरहित-शरदऋतु का आकाश खंड) के समान अथवा कृष्ण अशोक वृक्ष के समान अथवा कृष्ण कनेर के समान अथवा काले बन्धुजीवक के समान- तो क्या पूर्वोक्त
जीमूत आदि के जैसा होता है ? उ० गोयमा ! णो तिण? सम?, तेसि णं कण्हाणं तणाणं उ०-हे गौतम ! उनका कृष्णत्व बतलाने के लिये यह अर्थ मणीण य इत्तो इद्वत्तराए चेव, कंततराए चेव, पिययराए समर्थ नहीं है किन्तु ये तृण और मणि उनसे भी अधिक कृष्ण चेव, मणण्णतराए चेव, मणामतराए चेव, वण्णेणं वर्ण वाले है तथा ये देखने में इष्टतर ही हैं, कंततर (अत्यन्त पण्णत्ते ।
कमनीय) ही है, मनोज्ञतर ही है और मणामतर (मनोज्ञ से भी -जीवा०प० ३, ७० १, सु० १२६ अधिक मनोहर) ही है,