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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक
सूत्र २६-२७
नीलतण-मणीणं इट्रयरे नीलवणे
नील तृण-मणियों का इष्टतर नीलवर्ण२६. ५० तत्थ णं जे ते णीलगा तणा य मणी य तेसि णं भते ! २६. प्र० हे भगवन् ! उनमें जो नीलवर्ण वाले तृण और मणि हैं
इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते-से जहा नामए-भिगेइ उनका वर्णविन्यास क्या इस प्रकार का बतलाया है ? जैसे कि भृग वा, भिंगपत्तेति वा, चासेति वा, चासपिच्छेति वा, के समान अथवा भृगपक्ष के समान चाषपक्षी के समान अथवा सुएति वा, सुर्यापच्छेति वा, गोलोति वा, णीलीभेए ति अथवा चाषपक्षी के पंख के समान अथवा शुक (तोता) पक्षी के वा, णीली गुलियाति वा, सामाएति वा,उच्चतएति वा, समान अथवा शुक के पंख के समान अथवा नीली के समान अथवा वणराईइ वा, हलहर-वसणेइ वा, मोरग्गीवाति वा, पारे- नीली भेद के समान अथवा नीली गुटिका के समान अथवा वयगीवाति वा, अयसि-कुसुमेति वा, अंजगकेसिगा कुसु- श्यामक धान्य के समान अथवा उच्चंतग-दन्तराग के समान मेति वा, णोलुप्पलेति वा, णीलासोएति वा, णीलकणवीरे अथवा वनराजि के समान अथवा हलधर बलभद्र के बस्त्रों के ति वा, गोलबंधुजोवए ति वा, भवेएया रूवे सिया ? समान अथवा मयूरग्रीवा के समान अथवा कपोत (कबूतर) की
ग्रीवा के समान अथवा अलसी के पूष्प के समान अथवा अंजन केशिका के कुसुम के समान अथवा नील कमल के समान अथवा नील अशोक वृक्ष के समान अथवा नीले कनेर के समान अथवा
नीले बन्धुजीवक के समान-तो क्या उनका रूप ऐसा होता है ? उ० गोयमा ! नो तिण? सम8, तेसि णं णीलगाणं तणाणं उ०-हे गौतम ! ऐसा अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् उक्त
मणीण य एत्तो इटुतराए चैव-जाव-मणामतराए चैव पदार्थों से भी वे तृण और मणि अधिक नीले है, उन नीले तृणों वण्णणं पण्णत्ते।
और मणियों का नीलवर्ण इनसे भी अधिक इष्टतर है-यावत्-जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२६ मणामतर वर्णवाला कहा है। लोहिततण-मणीणं इट्ठयरे लोहियवण्णे
रक्त तृण-मणियों का इष्टतर रक्तवर्ण२७. प० तत्थ णं जे ते लोहितगा तणा य मणी य, तेसि णं भते ! २७. प्र०-हे भगवन् ! वहाँ जो लोहित-लाल वर्णवाले तृण और
अयमेयारूवे वण्णावासे एण्णत्ते, से जहा णामए-ससक- मणि बतलाये हैं, उनका वर्णविन्यास क्या इस प्रकार का कहा रुहिरे ति वा, उरभ-रुहिरे ति वा, णर-रुहिरे ति बा, गया है ? यथा-साशक-(खरगोश) के रक्त के समान अथवा वराह-रुहिरे ति वा, महिस-रुहिरे ति वा, बालिंद गोवए उरभ्र (भेड) के खून के समान अथवा मनुष्य के रक्त के समान ति वा, बालदिवाकरे ति वा, संझम्भ-रागेति वा, गुजद्ध- अथवा सूअर के रुधिर के समान, अथवा महिष (भैसा) के रक्त रागे ति वा, जातिहिंगुलुएति वा, सिलप्पवाले ति वा, समान, अथवा इन्द्रगोप कीट के समान अथवा प्रातःकालीन पवालंकुरे ति वा, लोहितक्ख मणीति वा, लक्खारसए बालदिवाकर (सूर्य) के समान अथवा संध्याकालीन आकाश के ति वा, किमिरागेइ वा, रत्तकंबलेइ वा, चीणपिट्ठरासीइ रंग के समान अथवा गुजा के आधे भाग के वर्ण समान अथवा वा, जासुयण-कुसुमेइ वा, किंसुअ-कुसुमेइ वा, पालियाइ- हिंगलुक के समान, अथवा शिलाप्रबाल (मूंगा) के समान अथवा कुसुमेइ वा, रत्तुप्पलेति रत्तासोगेति वा, रत्तकणयारेति प्रवाल (कोंपल) के अंकुर के समान अथवा लोहिताक्षमणि के वा, रत्तबंधुजीवेइ वा भवे एयारूवे सिया ?
समान अथवा लाक्षा (लाख) रस के समान अथवा कृमिराग के समान अथवा रक्त कंबल के समान, अथवा चीनपिष्टराशि चीना नामक धान्य विशेष की पीठी-आटा के समान, अथवा जपा-पुष्प के समान, अथवा पलाश-पुष्प के समान, अथवा पारिजात-पुष्प के समान, अथवा रक्तोत्पल (लालकमल) के समान, अथवा रक्ताशोक के समान अथवा रक्त कनेर के समान अथवा रक्त
बन्धुजीवक के समान-तो क्या उनका ऐसा ही रूप होता है ? उ० गोयमा ! नो तिण? सम?, तेसि गं लोहियगाणं उ०-हे गौतम ! उनका वर्णन कहने में यह अर्थ समर्थ
तणाण य, मणीण य एत्तो इट्टतराए चैव-जाव-मणाम- नहीं है, क्योंकि उन लोहित रक्त वर्ण वाले तृणों और मणियों तराए चेव वणेणं पण्णत्ते ।
का इनसे भी अधिक इष्टतर-यावत्-मणामतर वर्ण बतलाया --जीवा०प०३, उ०१, सु०१२६ गया है।