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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : सूर्य वर्णन
सूत्र ९६५-६६७
सूर्य वर्णन
सूर सदस्स विसिट्ठऽत्थं
सूर्य शब्द का विशिष्टार्थ६६५. ५०----से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-"सूरे आदिच्चे सूरे ६६५. प्र०-हे भगवन् ! सूर्य को "आदित्य' किस अभिप्राय से आदिच्चे"?
कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! सूरादीया णं समया इ वा, आवलिया इवा, उ०-हे गौतम ! समय, आवलिका-यावत्-अवसर्पिणी,
-जाव-ओसप्पिणी इ वा, उस्सप्पिणी इ वा। उत्सर्पिणीकाल का आदि भूत कारण सूर्य है । से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ- 'सूरे आदिच्चे हे गौतम ! इस कारण से सूर्य "आदित्य' का जाता है ।
सूरे आदिच्चे"। --भग. स. १२, उ. ६, सु. ५ सरियस्स सरुवअण्णयत्थ-पभा-छाया-लेस्साणं सुभत्त- सूर्य के स्वरूप अन्वयार्थ-प्रभा-छाया और लेश्याओं का
शुभत्व६६६. तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं गोयमे अचिरुग्गय बालसूरियं ६६६. उस काल और उस समय में भगवान गौतम अचितरोद्गत
जासुमणा कुसुमपुञ्जप्पगास लोहीतगं पासति, पासित्ता जाय- (अभी अभी उगे हुए) जासुमन-पुष्प-पुंज के समान रक्तवर्ण सद्दे-जाव-समुष्पन्नकोउहल्ले जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव आभा वाले बाल सूर्य को देखते हैं देखकर श्रद्धावश-यावत्उवागच्छइ उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता-जाव- उत्पन्न-कौतूहल के वश हो जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे वहाँ एवं वयासी
आते हैं आकर वन्दना नमस्कार करते हैं, वन्दना नमस्कार करके
-यावत-इस प्रकार बोलेप०-किमिदं भंते ! सूरिए ? किमिदं भंते ! सूरियस्स अट्ठ? प्र०—हे भगवन् ! यह सूर्य क्या है ? और सूर्य का अर्थ
क्या है ? उ०—गोयमा ! सुभे सूरिए; सुभे सूरियस्स अट्ठ।
उ०-हे गौतम ! सूर्य शुभ हैं और सूर्य का अर्थ शुभ है । ५०--किमिदं भंते ! सूरिए ? किमिदं भंते ! सूरियस्स पभा ? प्र०-हे भगवन् ! यह सूर्य क्या है और सूर्य की प्रभा
क्या है ? उ०—एवं चेव । एवं छाया । एवं लेस्सा ।
उ०—पूर्वोक्त के समान है। इसी प्रकार छाया और लेश्या --भग. स. १४, उ. ६, सु. १३-१६ के प्रश्नोत्तर हैं। मूरिअस्स उदगऽत्थमणाई पडुच्च अन्तर-पगास-खेत्ताइं सूर्य के उदयास्त को लेकर अन्तर, प्रकाश, देवादि का परूवण
प्ररूपण६६७. १. ५०-जावइयाओ णं भंते ! ओवासंतराओ उदयंते सूरिए ६६७. (१) प्र०-भगवन् ! उदय के समय में सूर्य जितने चक्खुप्फासं हवमागच्छइ ।
अवकाशान्तर से चक्षुस्पर्श की शीघ्र प्राप्त होता है । अस्थमते वि य णं सूरिए तावइयाओ चेव ओवा- क्या अस्त के समय भी सूर्य उतने ही अवकाशान्तर से चक्षु
संतराओ चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ ? स्पर्श को शीघ्र प्राप्त होता है ? उ०-हता गोयमा ! जावइयाओ णं ओवासंतराओ उद- उ-हाँ गौतम ! उदय के समय में सूर्य जितने अवका
यंते सूरिए चक्खुफास हब्वमागच्छइ । शान्तर से चक्षुस्पर्श को शीघ्र प्राप्त होता है । अत्थमंत वि सूरिए तावइयाओ चेव ओवासंतराओ अस्त समय में भी सूर्य उतने ही अवकाशान्तर से चक्षुस्पर्श चक्खुप्फासं हवमागच्छ।
को शीघ्र प्राप्त होता है।
१ (१) सूरिय. पा. २०, सु. १०४ ।
(ख) चन्द पा. २०, सु. १०४ ।