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________________ सूत्र १५३-१५४ अधोलोक गणितानुयोग ७३ मय-कुहिय - चिरविण? - कुणिम-वावण्ण - दुन्मिगंधे जो बहुत दिनों से पड़ा हो, सड़कर दुर्गन्ध दे रहा हो, बहुत दिनों से असुइविलीणविगत-बीभच्छ-दरिसणिज्जे किमिजाला- क्षत विक्षत होने के कारण मांस के टुकड़ों से दुर्गन्ध आरही हो, उलसंसते भवेयारूबे सिया ? अशुचिमय होने से देखने में बीभत्स तथा कृमि समूह से व्याप्त हो क्या इनके समान (रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों की) दुर्गन्ध है ? णो इण8 सम?। नहीं ऐसा नहीं है। गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए णरगा हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकावास इन (पूर्वोक्त एतो अणिटुतरका चेव जाव अमणामतरा चेव गंधेणं कलेवरों की दुर्गन्ध) से भी अनिष्टतर यावत् अमनोज्ञतर गन्ध पण्णत्ता। वाले कहे गये हैं। एवं जाव अधे सत्तमाए पुढवीए। इस प्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त है। प० इमीसे णं भंते ! रयगप्पभाए पुढवीए गरगा केरि- प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकावास किस ___सया फासेणं पण्णत्ता? प्रकार के स्पर्शवाले कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! से जहानामए असि-पत्तेइ वा, खुर-पत्तेइ उ. हे गौतम ! जिस प्रकार असिपत्र, क्षुरपत्र, कदम्बचीरिका वा, कलंबचीरिया-पत्तेइ वा, सत्तग्गेइ बा, कुंतग्गेइ वा, पत्र, शक्ति का अग्रभाग, (नौक) कॅन (भाले) का अग्रभाग, तोमर तोमरग्गेति वा,नारायग्गेति वा,सूलग्गेति वा,लउलग्गेति का अग्रभाग, नाराच (वज) का अग्रभाग, शूल का अग्रभाग, लकुल वा, भिडिमालग्गेति वा, सूचिकलावेति वा, कवियच्छृति का अग्रभाग, भिडिमाल का अग्रभाग, सूची-कलाप, (सूइयों का वा, विच्छ्यकंटएति वा, इंगालेति वा, जालेति वा, समूह) कपिकच्छु, बिच्छु का डंक, अग्नि, ज्वाला, मुर्मुर, अचि मुम्मु रेति वा, अच्चिति वा, अलाएति वा, सुद्धागणीइ (लपट) अलात या शुद्धाग्नि-क्या (इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नारवा, भवे एतारूवे सिया? कावासों का) स्पर्श ऐसा है ? णो इण? समट्ठ। नहीं-ऐसा नहीं है। गोयमा ! इमीसे णं रयणभाए पुढवीए णरगा एत्तो हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकावासों का स्पर्श अणितरा चेव जाव अमणामतरका चेव फासेणं इनसे (पूर्वोक्त असिपत्र आदि के स्पर्श से) भी अनिष्टतर यावत् पण्णत्ता। अमनामतर स्पर्श वाले कहे गये हैं। एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए। इसी प्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त है। -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ८३ । णरगाणं वइरामयत्तं सासयासासयत्तं य नरकावास वज्रमय और शाश्वत-अशाश्वत हैं१५४ : प० इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा किमया १५४ :प्र० भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में नारकावास किन पण्णता? (पुद्गलों) के बने हुए कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! सव्ववइरामया पण्णत्ता। तत्थ णं नर- उ० गौतम ! सब वज्रमय कहे गये हैं। उन नारकावासों में गौतम ! सब व एस बहवे जीवा य पोग्गला य अवक्कमंति, विउक्क- अनेक जीव उत्पब टोते हैं और अनेक जीव उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। तथा पुद्गल आते हैं मंति, चयंति, उबवज्जति । और जाते हैं। सासता णं ते णरगा दव्वट्ठयाए। अतएव वे नारकावास द्रव्यों की अपेक्षा शाश्वत है। वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहि रसपज्जवेहि फासपज्जवेहि वर्ण-पर्यवों गन्ध-पर्यवों रस-पर्यवों और स्पर्श-पर्यवों की असासया। अपेक्षा अशाश्वत हैं। एव जाव अहे सत्तमाए। इस प्रकार यावत् नीचे सातवीं पृथ्वी पर्यन्त है। -जीवा० पडि० ३, उ०१, सु० ८५। नरकावास वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्ण-पर्यवों की अपेक्षा से अशाश्वत हैं-इस कथन में रस-पर्यवो का निर्देश है-अतः इसका अभिप्राय यह हआ कि नर कावासों के पुद्गलों में रस-पर्यव हैं किन्तु इन नारकावासों के इस वर्णन में 'णरगाणं वण्णाई" इस शीर्षक के नीचे जीवा० प्र० ३, उ०१, सु० ८३ दिया है-इस सूत्र में नरकावासों के वर्ण, गन्ध और स्पर्श सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं। इनमें नरकावासों के वर्ण, गन्ध और स्पर्श को अनेक उपमाएँ देकर अनिष्टतर कहा है किन्त रस का निर्देश नहीं है। टोकाकार भी रस लेने के सम्बन्ध में किसी प्रकार का कोई हेतु नहीं देते हैं। फिर भी आगमज्ञ मुनि जनों की धारणा से समाधान हो सकेगा तो यथास्थान अंकित किया जायगा।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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