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लोक-प्रज्ञप्ति
अधोलोक
सूत्र १५५-१५६
अहोलोए बिसरीरा१५५ : अहोलोगे णं चत्तारि बिसरीरा' पण्णता, तं जहा
(१) पुढविकाइया। (२) आउकाइया। (३) वणस्सइकाइया । (४) उराला तसापाणा।
-ठाणं०४, उ०३, सु० ३२६ ।
अधोलोक में दो शरीर वाले१५६ : अधोलोक में दो शरीरवाले चार कहे गये हैं, यथा
(१) पृथ्वीकायिक । (२) अप्कायिक । (३) वनस्पतिकायिक । (४) औदारिक (शरीर वाले) त्रसप्राणी।
भवणवासिदेवठाणाई
भवनवासी देवों के स्थान१५६ : प० [१] कहि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं पज्जत्ता- १५६ : प्र. [१] हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त भवनवासी ऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता?
देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं। [२] कहि णं भंते ! भवणवासी देवा परिवसंति? [२] हे भगवन् भवनवासी देव कहाँ रहते हैं ? उ०[१] गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असी- उ० [१] हे गौतम ! एकलाख अस्सीहजार योजन की मोटाई
उत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एग वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अन्दर जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेवा वेगं जोयणसहस्सं प्रवेश करने पर और नीचे से एक हजार योजन छोड़ने पर एक वज्जेत्ता, मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से- लाख अठहत्तर हजार के मध्य भाग में भवनवासी देवों के सात एत्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ क्रोड बहत्तर लाख भवनावास हैं-ऐसा कहा गया है। बावत्तरि च भवणावाससयसहस्सा भवंतीति -
मक्खायं। ते गं भवणा बाहिं बट्टा, अंतो समचउरंसा, अहे। ये भवन बाहर से वृत्ताकार हैं। अन्दर से चतुष्कोण हैं और पुक्खरकण्णिया संठाणसंठिया उक्किणंतर-वि उल- नीचे से कमल की कणिका (कमल का बीजकोष) के संस्थान से गंभीर-खातपरिहा'
स्थित हैं । विशाल तथा गहरी खुदी हुई खायी तथा परिखा से
युक्त हैं। पागार-ट्टालय-कवाड-तोरण-पडिदुवार देसभागा जंत- (भवन के) प्राकारों के कुछ भागों पर अट्टालक कपाट तोरण सयग्घि-मुसल-मुसंढिपरियरिया अउज्झा सदा जता और छोटी-छोटी खिड़कियाँ हैं, (ये प्राकार) यन्त्र शतघ्नी, मुशल सदा गुत्ता।
और मुसंढीसे युक्त हैं, (अतएव ये भवन) अयोध्य हैं, सदा जयकारी
हैं अर्थात् अजेय हैं, सदा सुरक्षित हैं। अख्याल-कोट्रग-रइया अडयाल-कयवणमाला।' ___ भवनों में प्रशस्त कोष्ठक हैं और वे प्रशस्त वनमालाओं से
सुशोभित हैं।
१. प्रथम वर्तमान भवका शरीर और द्वितीय मनुष्य शरीर प्राप्त कर मुक्त होने वाले जीव ।
-स्थानांग अ०४, उ०३, सू० ३२६ की टीका। २. क-यहाँ औदारिक शरीरवाले त्रस केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय ही ग्रहण किये हैं।
-स्थानांग० अ०४, उ० ३, सू० ३२६ की टीका। ख-अधोलोक में मनुष्य शरीर संहरण की अपेक्षा से कहा गया है। ३. खाइ और परिखा भिन्न है-इनका अन्तर दिखाने वाली एक पालिका इन दोनों के मध्य में हैं। -टीकानुवाद
"अडयालकोटगरइया- अडयालकयवणमाला" इन दो वाक्यों में 'अडयाल' शब्द का अर्थ आचार्य श्री मलयगिरि ने 'अष्टचत्वारिंशत्' संस्कृत पर्याय दिया है। उसका अर्थ 'अडतालीस' होता है किन्तु उन्होंने अन्य आचार्यों के मतका उल्लेख करते हुए कहा है-'अडयाल' देश्य शब्द है और उसका अर्थ प्रशंसा परक है। इसलिए प्रस्तुत अनुवाद में पूर्वाचार्य सम्मत अर्थ ही दिया है।