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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : पौरुषी छाया वर्णन
सूत्र १०१५-१०१६
से के णं खाइ अट्ठणं भंते ! एवं बुच्चइ-"जंबुद्दीवे हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि-"जम्बूणं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य, मूले य दीसंति द्वीप नामक द्वीप में सूर्य उदय के समय दूर होते हुए भी समीप -जाव-अत्थमणमुत्तसि दूरे य, मूले य दीसंति ? में दिखाई देते हैं यावत्-अस्त होने के समय दूर होते हुए भी
समीप में दिखाई देते हैं ? उ०-(क) गोयमा। लेसापडिघाएणं उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य, उ०—(क) हे गौतम ! लेश्या-तेज के प्रतिघात से उदय मूले य दीसंति,
के समय दूर होते हुए भी समीप दिखाई देते हैं । (ख) लेसाभितावेणं मउझंतियमुहत्तंसि मूले य, दूरे य लेश्या के अभिताप से मध्याह्न के समय समीप होते हुए भी दीसंति,
दूर दिखाई देते हैं। (ग) लेस्सापडिघाएणं अत्थमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य लेश्या के प्रतिघात से अस्त होने के समय दूर होते हुए भी दीसंति,
समीप में दिखाई देते हैं। से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ- 'जंबुद्दीवे णं इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि-"जम्बूदोवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति द्वीप नामक द्वीप में सूर्य उदय के समय दूर होते हुए भी समीप -जाब-अत्थमणमुत्तसि दूरे य, मूले य दीसति'। में दिखाई देते हैं-यावत् - अस्त होने के समय दूर होते हुए भी
-भग. स. ८, उ. ८, सु. ३५-३७ समीप में दिखाई देते हैं। पोरिसि च्छाय-निव्वत्तणं
पौरुषी छाया की उत्पत्ति१६. ५०–ता क इकट्ठ ते सूरिए पोरिसीच्छायं णिवत्ते ति? १६. प्र०-सूर्य कैसी स्थिति में पौरुषी छाया को उत्पन्न करता
आहिए त्ति वएज्जा, उ०-तत्थ खलु इमाओ तिष्णि पडिवत्तीओ पण्णताओ, उ०.- इस सम्बन्ध में तीन अन्य मान्यताएँ कही गई है तं जहा
यथा१. तत्थेगे एवमाहंसु
(१) उनमें से एक मान्यता वाले इस प्रकार कहते हैं । ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पोग्गला सूर्य के तेज से जितने पुद्गल स्पर्श को प्राप्त होते हैं वे तपते संतप्पंति, ते णं पोग्गला संतप्पमाणा तदणंतराइं बाहि- हैं और तपने के बाद वे बाह्य पुद्गलों को तपाते हैं । राई पोग्गलाई संतातीति, एस णं से समिए तावक्खेत्ते एगे एवमाहसु,
यह (सूर्य से) उत्पन्न ताप क्षेत्र है। २. एगे पुण एवमाहसु
(२) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैंता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पोगला सूर्य के तेज से जितने पुद्गल स्पर्श को प्राप्त होते हैं वे नहीं नो संतप्पंति, ते णं पोग्गला असतप्पमाणा तदणंतराइं तपते हैं, नहीं तपे हुए वे पुद्गल समीप के बाह्य पुद्गलों को भी बाहिराई पोग्गलाई णो संतावेंतीति,
नहीं तपाते हैं। एस णं से समिए तावक्खेत्ते, एगे एवमासु,
वह (सूर्य से) उत्पन्न ताप क्षेत्र हैं। ३. एगे पुण एवमाहंसु
(३) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैंता जे णं पोग्गला सरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पोग्गला सूर्य के तेज से जितने पुद्गल स्पर्श को प्राप्त होते हैं उनमें अत्थेगइया संतप्पंति, अत्गइया नो संतप्पति, से कुछ पुद्गल तपते हैं और कुछ पुद्गल नहीं तपते हैं । तत्थ अत्थेगइया संतप्पमाणा तदणतराई बाहिराई उनमें से तपे हुए कुछ पुद्गल समीप के कछ बाह्य पुद्गलों पोग्गलाई अत्थेगयाई संताति, अत्थेगथाई नो संता- को तपाते हैं और कुछ को नहीं तपाते हैं । वतीति,
१ जम्बु. वक्ख. ७, सु. १३६ ।