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गणितानुयोग : प्रस्तावना
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relating to rectilinear figures, their combinations का संख्या, व्यास और परिधि; लोक, अन्तर्लोक, ज्योतिर्लोक and transformations, squaring the circle and circling स्वर्ग और नरक के रहने वाले सभी के श्रोणिबद्ध भवनों, सभा the square as well as arithmetical and algebraic भवनों एवं गुम्बदाकार मन्दिरों के प्रमाण तथा अन्य विविध sbiutions of problems arising out of such measure- प्रमाण गणित की सहायता से ही जाने जाते हैं। वहाँ पर प्राणियों ments and constructions."
के संस्थान, उनकी आयु और आठ गुण इत्यादि, यात्रा आदि बौद्ध साहित्य में भी अंकगणित (गणना, संख्यान) को तथा संहिता आदि से सम्बन्धित विषय सभी गणित पर निर्भर महत्वपूर्ण एवं श्रेष्ठ कला के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसके हैं। अधिक कहने से क्या प्रयोजन? सचराचर त्रैलोक्य में जो कुछ सिवाय तीन प्रकार के गणित का उल्लेख प्राचीन बौद्ध साहित्य भी बस्तु है उसका अस्तित्व गणित के बिना सम्भव नहीं हो सकता। में 'मिलता है जहाँ मुद्रा गणित, गणना नगणित, तथा संख्यान कृतार्थ, पूज्य और जगत के स्वामी तीर्थंकरों की शिष्यगणित को दीर्घनिकाय (१, पृ. ५१), विनय पिटक (४, पृ. ७), प्रशिष्यात्मक प्रसिद्ध गुरु परम्परा से आये हुए संख्यानरूपी समुद्र में दिव्यावदान एवं मिलिन्द पञ्हो' में वर्णित किया गया है। से-समुद्र से रत्न की भाँति, पाषाण से कांचन की। जन साहित्य की आधारशिला गणित ही है। स्थानांग सूत्र
शुक्ति से मुक्ताफल की भाँति-कुछ सार निकालकर मैं गणित७४८ में व्यवहृत गणित का रूप निम्न प्रकार है :
सार संग्रह ग्रन्थ को अपनी मति-शक्ति के अनुसार कहता हूँ, जो
लघु होते हुए भी अनल्पार्थक है।" "परिकम बवहारो रज्जु रासी कलासवन्ने य। आवत्तावति वग्गो घनो त तह वग्गवग्गो विकप्पो य॥"
इसी प्रकार अन्तगडदसाओ, कल्पसूत्र, समवायांग सूत्रादि गशित की प्रशंसा करते हुए जगविख्यात गणितज्ञ
ग्रन्थों में लेखा, रूप और गणना का उल्लेख मिलता है। महावीराचार्य ने, गणितसार संग्रह के प्रारम्भ में, अध्याय १,
जो कुछ हो, गणित को जैन साहित्य में विशेष स्थान मिलने श्लोक ९-१६ में निम्न प्रकार लिखा है :
का कारण उनका अलौकिक गणित से गुंथा हुआ कर्म संबंधी "लौकिक, वैदिक, तथा सामयिक जो जो व्यापार हैं उन साहित्य है जिसमें गणित के बिना गति असंभव है । इन ग्रन्थों में सब में गणित का उपयोग होता है। कामशास्त्र अर्थशास्त्र मुख्यतः षट्खण्डागम, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासारादि गन्धर्वशास्त्र, नाट्यशास्त्र, पाकशास्त्र, आयुर्वेद, वास्तुविद्या, आदि ग्रन्थ तथा उनकी धवला, जीवतत्वप्रदीपिका एवं सम्यक्ज्ञान में; छद, अलंकार, काव्य, तर्क, व्याकरण इत्यादि में; तथा कलाओं चंद्रिका टीकाएँ हैं। कर्म का लेखा उतना सरल नहीं जितना के समस्त गुणों में गणित अत्यन्त उपयोगी है। सूर्य आदि ग्रहों ज्योतिष्कों का गति लेखा। ज्योतिष्कों के गति लेखे में सूर्य प्रज्ञप्ति की गति ज्ञात करने में, ग्रहण में, ग्रहों की युति में, प्रश्न में, चन्द्रमा प्रभृति ग्रन्थों में और उनकी टीकाओं में गणित का महत्व के परिलेख में, सर्वत्र गणित अंगीकृत है । द्वीपों, समुद्रों और पर्वतों दृष्टव्य है ।
४. जैन संस्कृति में लौकिक एवं लोकोत्तर गणित का विभिन्न आम्नायों में विकास लौकिक गणित को दो रूपों में विभाजित किया जा सकता नहीं था कि लौकिक गणित जो उस काल तक (भगवान् वर्द्धमान है । एक तो वह जो शुद्ध सूत्रों को आविष्कृत करता चलता है, महावीर काल तक)इतनी विकसित हो चुकी थी कि उसका प्रयोग दूसरा वह जो शुद्ध सूत्रों का प्रयोग विभिन्न प्रकार की विद्याओं लोकोत्तर समस्त प्रकरणों में हो सके । तथ्य यह था कि कर्म या कलाओं करता है और उनसे प्राप्त परिणामों से प्रयोगात्मक सिद्धान्त के निरूपण हेतु जो लोक की संरचना गणितीय रूप में अवलोकन की तुलना करता है। इस संबंध में आचार्य अकलंक जैन तीर्थ में विकसित हुई थी वह अपने आप में एक गणितीय की तत्वार्थ सूत्र को टीका दृष्टव्य है।
आधार था । जहाँ श्वेताम्बर आम्नाय में गणित ज्योतिष सिद्धान्त लोकोत्तर गणित को प्रयुक्त गणित के रूप में माना जा को निरूपित करने में विशेष टीकाएँ उपलब्ध होती हैं वहाँ सकता है । किन्तु जिस समय लोकोत्तर प्रकरणों को जैन साहित्य दिगम्बर आम्नाय में गणित कर्म सिद्धान्त को निरूपित करने में में गणित द्वारा निरूपित किया गया उस समय यह आवश्यक विशेष टीकाएँ उपलब्ध होती हैं। जहाँ श्वेताम्बर आम्नाय में
१ विनयपिटक, ओल्डनबर्ग, सं०, भाग ४, पृ०७; मज्झिमनिकाय, भाग १, पृ० ८५; चुल्ल निद्देश पृ० १६६ । २ सं०ई० बी० कॉवेल तथा आर० ए० नील, कैम्ब्रिज, १८८६, पृ० ३, २६ और ८८. ३ अनु. राइस डेविड्स, ऑक्सफार्ड, १८६०, पृ० ११ ।