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गणितानुयोग : प्रस्तावना
गणित-ज्योतिष संबंधी टीकाओं में ध्रव राशि के उपयोग द्वारा (१) षट् विशिका (संभवतः बीजगणित ग्रन्थ, या टीका विषय को सुलभ बनाया गया वहां दिगम्बर आम्नाय में गणित
माधवचंद विद्य द्वारा) कर्म संबंधी टीकाओं में अनेक प्रकार की राशियों की संदृष्टियों (२) ज्योतिषा पटल (संभवतः ग्रह नक्षत्रादि गणित संबंधी) द्वारा विषय को सुलभ बनाया गया। यह तथ्य प्रमुखता को लेकर (३) क्षेत्रगणित बतलाया जा रहा है । वास्तव में माधवचंद त्रैविच की त्रिलोकसार (४) छत्तीस पूर्वा उत्तर प्रतिसह टीका में भी गणित-ज्योतिष को सुलभ बनाया गया है । इसी अनुपम जैन ने गणितसार संग्रह से सम्बन्धिन ३४ पाण्डुलि-. प्रकार उनकी अन्य टीका में गणित-कर्म को भी सुलभ बनाया पियों का विवरण दिया है। गणितसार संग्रह में विकसित गया है।
गणित स्रोत के विषय में स्वयं महावीराचार्य का कथन पुनः दिगम्बर आम्नाय में जगत्प्रसिद्ध महावीराचार्य का लौकिक उल्लेखनीय है : मैं तीर्थ को उत्पन्न करने वाले कृतार्थ और गणित ग्रन्थ गणितसार संग्रह, ईसा की नवीं सदी की उन्नत जगदीश्वरों से पूजित (तीर्थंकरों) की शिष्य प्रशिष्यात्मक प्रसिद्ध गणित का परिचायक है जिसमें निम्नलिखित विषय प्रतिपादित गुरुपरम्परा से. आये हुए संख्या ज्ञान महासागर से उसका कुछ हैं : संज्ञा अधिकार (क्षेत्र परिभाषा, काल परिभाषा, धान्य परि- सार एकत्रित कर, उसी तरह, जैसे कि समुद्र से रत्न, पाषाणमय भाषा, सुवर्ण परिभाषा, रजत परिभाषा, लोह परिभाषा, परिकर्म चट्टान से स्वर्ण और शुक्त से मुक्ताफल प्राप्त करते हैं; अल्प होते नामावलि, शून्य तथा धनात्मक एवं ऋणात्मक राशि सम्बन्धी हुए भी अनल्प अर्थ को धारण करने वाले सार संग्रह नामक नियम, संख्या संज्ञा, स्थान नामावलि, गणक गुणनिरूपण); गणित ग्रन्थ को अपनी बुद्धि की शक्ति के अनुसार प्रकाशित 'परिकर्म व्यवहार (प्रत्युत्पन्न, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घन- करता हूँ। स्पष्ट है कि इसमें लोकोत्तर गणित का कुछ सार एकभूल, संकलित, व्युत्कलित); कलासवर्ण व्यवहार (भिन्न त्रित किया गया है। यह भी स्पष्ट है कि इसमें परिकर्म व्यवहार, प्रत्युत्पन्न, भिन्न भागहार, भिन्न संबंधी वर्ग, वर्गमूल, धन, घनमूल, कलासवर्ण व्यवहार, पैराशिक व्यवहार, क्षेत्र गणित व्यवहार, भिन्न संकलित, भिन्न व्युत्कलित, कलासवर्ण, षड्जाति, भागजाति, और छाया व्यवहार, लोकोत्तर विकसित गणित से सार रूप प्रभाग और भागाभाग जाति, भागानुबन्ध जाति, भागापवाह जाति, लिया गया होगा। भाग-मातृ जाति); प्रकीर्णक व्यवहार (भाग और शेष जाति, मूल इस प्रकार इस ग्रन्थ में जैन आचार्यों द्वारा प्रायः १००० वर्षों जाति, शेषमूल जाति, द्विरन शेषमूल जाति, अंशमूल जाति, भाग में विकसित किये गये लोकोत्तर गणित का कुछ स्वरूप प्राप्त है । नवीं संवर्ग जाति, ऊनाधिक अंशवर्ग जाति, मूल मिश्र जाति, भिन्न सदी में हुए दिगम्बर आम्नाय में वीरसेनाचार्य द्वारा किसी गणिता दृश्य जाति), त्रैराशिक व्यवहार (अनुक्रम पैराशिक, व्यस्त त्रैरा- ग्रन्थ "सिद्ध-भू-पद्धति" की टीका लिखी जाना प्रमाणिाल होता है। शिक, व्यस्त पंचराशिक, सप्त राशिक, नवराशिक, भाण्ड प्रति स्पष्ट होता है कि धवला टीकाकार ने लोकोत्तर गणित ग्रंथ भाण्ड, क्रय विक्रय); मिश्रक व्यवहार (संक्रमण और विषम सक्र- "सिद्ध-भू-पद्धति" को सुलभ बनाने हेतु टीका की रचना की मण, पंचराशिक विधि, वृद्धि विधान, प्रक्षेपक कुट्टीकार, वल्लिका होगी। यह ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है, न ही उसकी टीका । अंत. कुट्टोकार, विषम कुट्टीकार, सकल कुट्टीकार , सुवर्ण कुट्टीकार, साहित्य का बृहद इतिहास, भाग ५ में निम्नलिखित अन्य जैन विचित्र कुट्टीकार, श्रेढोबद्ध संकलित); क्षेत्रगणित व्यवहार (व्यव- आचार्यों द्वारा निर्मित गणित ग्रन्थों का परिचय दिया है : हारिक गणित, सूक्ष्म गणित, जन्य व्यवहार, पैशाचिक व्यवहार); विक्रम संवत् १३७२-१३८० में रचित मणित सार कौमुदी खात व्यवहार (सूक्ष्म गणित, चिति गणित, कचिका व्यवहार,); (प्राकृत) के रचियता ठाकुर फेरू हैं। इसमें भास्कराचार्य की और छाया व्यवहार।
"लीलावती" एव महावीराचार्य के गणित सार संग्रह का उपयोग यह ग्रन्थ सम्पूर्ण गणित ग्रन्थ है जिसका प्रचार संभवतः हुआ है । तथापि नवीन लोकभाषा शब्दः एवं कुछ नवीय मूल्यवान दक्षिण भारत में रहा । महावीराचार्य द्वारा संभवतः निम्नलिखित प्रकरण भी हैं । इसमें वर्णित यंत्रों पर शोध होना आवश्यक है । चार कृतियां और रचित मानी जाती हैं । परन्तु यह विषय विक्रम संवत् १२६१ के लगभग पल्लीवाल अस्तपाल द्वारा विवादास्पद है।
पाटीगणित की रचना की गयी।
१. देखिये महावीराचार्य, द्वारा अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल हस्तिनापुर, १९८५, पृ० २. २. देखिये, वही, सारिणी पृ० ८ के समक्ष । ३. महावीराचार्य, गणितसार संग्रह, शोलापुर, १९६३, पृ० ३. ४. लेखक पं० अंबालाल प्रे० शाह, वाराणसी, १९६६, पृ० १६०-१६६.