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________________ ३१८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन सूत्र ५६२-५६६ माणी परिवड्ढमाणी, मुहमूले बाट्टि जोयणाई अद्धजोयणं अनुक्रम से बढ़ते-बढ़ते मुख के मूल (समुद्र प्रवेश करते समय च विवखंभेणं, सकोसं जोयणं उन्हेणं, उभओ पासि दोहिं प्रवाह) का विष्कम्भ साड़े बासठ योजन और उद्वेध सवा योजन पउमवरवेइयाहि दोहि अ वणसंहिं संपरिक्खित्ता। का है, इसके दोनों पार्श्व (किनारे) दो पद्मवर वेदिकाओं तथा दो वनखण्डों से घिरे हुए हैं। वेइया-वणसंडवण्णओ भाणिअव्वो। यहाँ पद्मवर वेदिकाओं का तथा वनखण्डों का वर्णन करना -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ चाहिए। सिंधुमहाणईए पवायाईणं पमाणं सिन्धु महानदी के प्रपात आदि के प्रमाण५६३. एवं सिंधुए वि अव्वं-जाव-तस्स णं पउमद्दहस्स पच्चत्थि- ५६३. इसी प्रकार (गंगा नदी के समान) सिन्धु नदी के (प्रपातादि मिल्लेणं तोरणेणं ।' के आयामादि) भी जानने चाहिए-यावत्-उस पद्मद्रह के पश्चिमी तोरण से""। सिंधुआवत्तणकूडे सिन्धु आवर्तनकूट दाहिणाभिमुही दक्षिणाभिमुख सिंधुप्पवायकुण्ड सिन्धु प्रपात कुण्ड सिंधुद्दीवो सिन्धुद्वीप अट्ठो सो चेव-जाब- -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ सिन्धुनदी नामकरण का कारण (सब गंगा नदी के समान है) ५६४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं भरहे वासे दो ५६४. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण में (दिशास्थित) महाणईओ बहुसमतुल्लाओ अविसेसमणाणत्ताओ अण्णमण्णं भरत क्षेत्र में दो महानदियां हैं जो (क्षेत्र प्रमाण की अपेक्षा से) नाइवट्टन्ति आयाम-विक्खंभ-उव्वेह-संठाण-परिणाहणं अधिक सम या तुल्य है, विशेषता रहित है, (काल अपेक्षा से) नानापन नहीं है, (वे दोनों नदियाँ) लम्बाई-चौड़ाई-गहराई संस्थान और परिधि की अपेक्षा से एक-दूसरे का अतिक्रम नहीं करती है, तं जहा यथा१. गंगाचेव, २. सिंधूचेव। -ठाणं २, उ० ३, सु० ८८ (१) गंगा, और (२) सिन्धु । ५६५. गगा-सिंधुओ णं महाणईओ पवाहे सातिरेगेणं चउवीसं कोसे ५६५. गंगा और सिन्धु इन दोनों महानदियों का प्रवाह कुछ वित्थारेणं पण्णत्ताओ। -सम० २४, सु०५ अधिक चौबीसकोश के विस्तार का कहा गया है। ५६६. गंगा-सिंधुओ णं महाणदीओ पणवीसं गाऊयाणि पुहुत्तेणं ५६६. गंगा और सिन्धु ये दोनों महादियां घड़े के मुख से निकलते दहओ घडमुह-पवित्तिएणं मुत्तावलिहार-संठिएणं पवातेण हुए जल के समान कल-कल शब्द करती हुई पच्चीस गाऊ विस्तृत पडंति । -सम० २५, सु०७ मुक्तावलीहार की आकृति जैसे प्रपात से गिरती है। १ एम एवं सिन्ध्वा अपि स्वरूपं नेतव्यं, यावत्तस्य पद्मद्रहस्य पाश्चात्येन तारेणेन सिन्धु महानदी निर्गता सती पश्चिमाभिमुखी पंचयोजन-- शतानि पर्वतेन गत्वा"...... २ सिन्ध्वावर्तनकूटे आवृता सती पंचयोजनशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि त्रींश्चैकोनविंशतिभागान् ..... ३ दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महता घटमुखप्रवृत्तिकेव-यावत्-प्रपातेन प्रपतति, सिन्धु महानदी यतः प्रपतति अत्र महती जिबिकावाच्या, सिन्धु महानदी यत्र प्रपतति तत्र....... ४ सिन्धु प्रपातकुण्डं वाच्यं. ५ तन्मध्ये सिन्धुद्वीपो वाच्योऽर्थः स एव यथा गंगाद्वीपप्रमाणि गंगाद्वीप वर्णाभानि पद्मानि तथा सिन्धद्वीपप्रमाणि सिन्धद्वीपवर्णाभानि पद्मानि सिन्धुद्वीप उच्यते । इस प्रकार टीकाकार ने संक्षिप्त मूलपाठ का स्पष्टीकरण किया है। ६ (क) इस सूत्र में सिन्धुनदी सम्बन्धी मूलपाठ के अन्त में 'सेसं तं चेवत्ति' यह सूचना दी है, टीकाकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-"शेष उक्तातिरिक्त प्रबह-मुखमानादि तदेव गंगामान समानमेव जयम।"
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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