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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : सूर्य की दक्षिणार्द्ध मण्डल संस्थिति
सूत्र १०४३-१०४६
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गाहाओ भाणियवाओ,'
यहाँ गाथाएँ कहनी चाहिए। -सूरिय. पा. १, पाहु. १, सु. ११ सुरिअस्स गमणागमणेण विसम अहोरत्त परूवणं- सूर्य के गमनागमन से विषम अहोरात्र का प्ररूपण४५. तेणउईमंडलगते णं सूरिए अतिवट्टमाणे वा, निवट्टमाणे वा ४५. तिरानबेवें मण्डल में रहा हुआ, सूर्य आभ्यन्तर मण्डल की समं अहोरत्तं विसमं करेइ।
ओर जाता हुआ तथा बाह्य मण्डल की ओर आता हुआ समान
-सम. ६३, सु. ३ अहोरात्र को विषम करता है । सूरस्सदाहिणा अद्धमंडल सठिई
सूर्य की दक्षिणाद्ध मण्डल-संस्थिति४६. ५०–ता कहं ते अद्धमंडलसंठिई आहिताति वदेज्जा? ४६. सूर्य की अर्धमण्डल संस्थिति अर्थात् “प्रत्येक अहोरात्र में
सूर्य की एकेक अर्द्धमण्डलों में परिभ्रमण-व्यवस्था" किस प्रकार
कही गई है ? वह कहें, उ०-तत्थ खलु इमे दुवे अद्धमंडलसंठिई पप्णत्ता, तं जहा- उ०-यहां ये दो प्रकार की अर्धमण्डल-संस्थिति कही गई
१. दाहिणा चेव अद्धमंडलसंठिई, २. उत्तरा चेव अद्ध- हैं, यथा-दक्षिणार्धमण्डलसंस्थिति और उत्तरार्धमण्डलसंस्थिति ।
मंडलसंठिई। ५०–ता कहं ते दाहिणा अद्धमंडलसंठिई आहिताति प्र०-दक्षिणार्धमण्डल-संस्थिति किस प्रकार की कही गई वदेज्जा?
है? वह कहें। उ०–ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वन्भंत- उ०-यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप-समुद्रों के मध्य में सबसे
राए सव्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम- छोटा वृत्ताकार है-यावत्-एक लाख योजन का लम्बा चौड़ा विक्खंभेणं तिण्णि जोयणसयसहस्साई, दोन्नि य सत्ता- है और तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन कोश एक सौ वीसे जोयणसए-तिणि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं अट्ठावीस धनुष तेरह अंगुल तथा आधे अंगुल से कुछ अधिक तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिए परिक्खे- की परिधि वाला कहा गया है। वेणं पण्णत्ते। ता जया णं सूरिए सव्वन्मंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति जब सूर्य सर्व आभ्यन्तर दक्षिणार्धमण्डल संस्थिति को प्राप्त उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्को- करके गति करता है तब परम उत्कर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अठारह सए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालस मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि है। मुहुत्ता राइ भवइ। से निक्खममाणे सूरिए णवं सवच्छरं अयमाणे पढमंसि (सर्व आभ्यन्तर मण्डल से) निकलता हुआ वह सूर्य नये अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादि पदेसाए संवत्सर का दक्षिणायन प्रारम्भ करता हुआ प्रथम अहोरात्र में अभितराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलं संठिइं उवसंकमित्ता दक्षिण के आभ्यन्तर भाग के आदि प्रदेश से आभ्यन्तरानन्तर चारं चरइ।
उत्तरार्धमण्डल संस्थिति को प्राप्त करके गति करता है । ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं उत्तरं अद्धमंडल- जब सूर्य आभ्यन्तरानन्तर उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त संठिइं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया गं अट्ठारस- करके गति करता है, तब तक मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो मुहुत्तेहिं दिवसे भवव दोहिं एगट्ठिभागमुहुर्तेहिं ऊणे। भाग कम अठारह मुहूर्त का दिन होता है। बुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्टि भागमुहुहि एक मुहूर्त के इकसठ भाग तथा दो भाग अधिक बारह मुहूर्त अहिया,
की रात्रि होती है।
१ (क) चन्द. पा. १ सु. ११ । (ख) अत्र अनन्तरोक्तार्थसंग्राहिका अस्या एव सूर्यप्रज्ञप्तेर्भद्रबाहुस्वामिना या नियुक्तिःकृता तत्प्रतिबद्धा अन्या वा काश्चन
ग्रन्थान्तरसुप्रसिद्धा गाथा वर्तन्ते ता "भणितव्या" पठनीया, ताश्च सम्प्रति क्वापि पुस्तके न दृश्यन्त, इति व्यवच्छिन्ना सम्भाव्यन्ते ततो न कथयितुं व्याख्यातुवा शक्यन्ते"
-सूर्य. टीका.