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________________ सूत्र १०-११ लोक गणितानुयोग ७ "जस्स गं देवाणुप्पिया! दसणं कंखंति (जाव) से णं समणे हे देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन की आप इच्छा करते हो भगवं महावीरे पुव्वाणुटिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे (यावत्) वे श्रमण भगवान महावीर क्रमशः विचरते हुए मार्ग में चंपाए णयरीए उवणगरग्गामं उवागए।" आने वाले गांवों को पावन करते हुए चम्पानगरी के उपनगर ग्राम में पधारे हैं।" तए णं से कणिए राया (जाव) सीहासणवरगए पुरस्थाभि- तब कोणिक राजा (यावत्) सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर मुहे णिसीयइ णिसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अबतेरस्स बैठकर, उस प्रवृत्तिव्यामृत को साढ़े बारह लाख (चांदी की सयसहस्साई पोइदाणं दलयइ, दलइत्ता सक्कारेइ सम्माणेइ मुद्राओं का) प्रीतिदान दिया; देकर सत्कार सम्मान किया, सक्कारिता सम्माण्णित्ता पडिविसज्जेइ। सत्कार-सम्मान करके उसे विसर्जित किया। तए णं से कुणिए राया भंभसारपुत्ते बलवाउयं आमतेइ तब भं भसार के पुत्र कोणिक राजा ने सेनापति को बुलवाया आमंतित्ता एवं वयासी ___ और बुलवाकर इस प्रकार कहा"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडि- "हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को सजाकर कप्पेहि (जाव) णिज्जाहिस्सामि समणं भगवं महावीरं तैयार करो (यावत्) मैं श्रमण भगवान महावीर की अभिवन्दना अभिवंदिउं।" के लिए जाऊँगा।" तए णं से बलवाउए (जाव) एवं वयासो तब वह सेनापति (यावत्) इस प्रकार बोला-... "कप्पिए णं देवाणुप्पियाणं आभिसेक्के हत्थिरयणे (जाव) "देवानुप्रियों का आभिषेक्य हस्तिरत्नतैयार है (तावत्) हे तं णिज्जंतु णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं देवानुप्रिय ! अब श्रमण भगवान महावीर की अभिवन्दना के लिए अभिवंदिउं।" प्रस्थान करें।" तए णं से कूणिए राया (जाव) जेणेव समणे भगवं महावीरे तब वह कोणिक राजा (यावत्) जहाँ श्रमण भगवान महावीर तेणेव उवागच्छइ (जाव) पज्जुवासह। थे, वहाँ आये (यावत्) पर्युपासना की। .. . तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ (जाव) जेणेव समणे तब भंभसार पुत्र कोणिक राजा की सुभद्रा प्रमुख देवियाँ भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति (जाव) पज्जुवासंति । (यावत्) जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे (यावत्) वहाँ आई और -ओव० सु० २८-३३ पर्युपासना करने लगीं। भगवया लोगाइउवएसो भगवान द्वारा लोकादि के सम्बन्ध में उपदेश“११ : तए णं समगे भगवं महावीरे कूगियस्स रणो भंभसार- ११ : तब श्रमण भगवान महावीर भंभसारपुत्र कोणिक को, पुत्तस्स सुभद्दापमुहाणं देवीणं तीसे य महइमहालियाए परिसाए सुभद्रा आदि देवियों को और उस अति विशाल परिषदा को (जाव) अद्धमागहाए भासाए भासइ। (यावत्) अर्ध-मागधी भाषा में उपदेश देने लगे।' १. भगवान महावीर ने कोणिक के शासन काल में चम्पानगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य के वन में अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वी शिलापट पर स्थित होकर बहुत बड़ी परिषद के समक्ष अर्धमागधी भाषा में देशना दी थी । उस देशना में भगवान ने सर्वप्रथम लोक और अलोक के अस्तित्व का प्रतिपादन किया था। औपपातिक सूत्र में उक्त देशना का अति विस्तृत वर्णन है । वह कथानुयोग में दिया गया है और यहाँ उक्त देशना का संक्षिप्त वर्णन दिया गया है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि मूल पाठों की दृष्टि से जैनागमों की दो वाचनाएँ प्रसिद्ध हैं१. विस्तृत वाचना, और २. संक्षिप्त वाचना। वाचनाचार्यों ने यत्र-तत्र 'जाव' आदि अनेक संकेत देकर विस्तृत वाचना के मूल पाठों को संक्षिप्त करके संक्षिप्त वाचना का संकलन किया था उसी संकलन पद्धति का अनुसरण करके प्रस्तुत उत्थानिका में और आगे भी इस संस्करण में दो प्रकार के 'जाव' के संकेत दिये गये हैं । कुछ कोष्ठकों के अन्तर्गत हैं और कुछ कोष्ठकों के बिना हैं । कोष्ठकों के अन्तर्गत जितने 'जाव' के संकेत हैं, वे सब प्रस्तुत संस्करण के लिए दिये गये हैं और बिना कोष्ठकों के जितने 'जाव' के संकेत हैं, वे सब प्राचीन संक्षिप्त वाचना के हैं । इस सूचना को ध्यान में रखकर ही प्रस्तुत संस्करण का स्वाध्याय करना चाहिए ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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