________________
६
लोक-प्रज्ञप्ति
लोक
सूत्र ६-१०
M
चंपानयरीजहिं पज्जुवासणा
चम्पानिवासियों द्वारा पर्युपासना ६: तए णं चंपाए णयरीए (जाव) बहुजणो अण्णमण्णस्स एव- ६: उस समय चम्पा नगरी में (यावत्) अनेक मनुष्य एक दूसरे माइक्खइ एवं भासइ, एवं पण्णवेड, एवं परुवेइ । से इस प्रकार कहने लगे-इस प्रकार भाषण करने लगे-इस
प्रकार ज्ञापन करने लगे-इस प्रकार प्ररूपण करने लगे"एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थ- हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगगान महावीर आदिकर तीर्थकर यरे सयंसंबुद्धे पुरिसुत्तमे जाव सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं संपा- स्वयं-संबुद्ध, पुरुषों में उत्तम यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को विउकामे पुव्वाणुपुव्वि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे, इह- प्राप्त करने के इच्छुक क्रमशः चलते हुए एक गाँव से दूसरे गांव मागए, इह संपत्ते, इह समोसढे; इहेव चंपाए णयरीए बाहिं गमन करते हुए यहाँ आये हैं, यहाँ ठहरे हैं और यहाँ निवास किया पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा है, इस चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में श्रमणोचित स्थान अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।
ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते
हुए विराजमान हैं। तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहताणं हे देवानुप्रियो ! तथारूप अरिहंतों के नाम-गोत्र श्रवण का णाम-गोयस्स वि सवणयाए किमंग पुण अभिगमण वंदण- भी महाफल है तो उनके सम्मुख जाना-वंदन करना-नमस्कार णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए।
करना, प्रश्न पूछना और पर्युपासना के फल का तो कहना ही
क्या है ? एगस्त वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए किमंग आर्यपुरुष के एक धार्मिक सुवचन श्रवण का भी महाफल है, पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ।
तो विपुल अर्थ ग्रहण के फल का तो कहना ही क्या है ! तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो इसलिए हे देवानुप्रिय ! चलो हम सब श्रमण भगवान महा(जाव) पज्जुवासामो एवं णं इहभवे पेच्चभवे य हियाए वीर को वंदन करें (यावत्) पर्युपासना करें। यह (हमारे द्वारा सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सई" त्ति की गई भगवद् वंदना आदि) इस भव में और पर-भव में हित के कट्ट बहवे उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता (जाव) चंपाए लिए, सुख के लिए, क्षान्ति के लिए, कल्याण के लिए, भव णयरीए मज्झमझेणं णिग्गच्छंति णिग्गच्छित्ता जेणेव परम्परा में सुख-लाभ के लिए होगी। इसलिए बहुत से उग्र, पुण्णभद्दे चंइए तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता समणं भगवं उग्रपुत्र, भोग, भोगपुत्र (याबत्) चम्पानगरी के मध्य से होकर महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति करित्ता वंदंति निकले, निकलकर जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था वहाँ आये । वहाँ आकर णमसंति वदित्ता णमंसित्ता पच्चासणे णाइदूरे सुस्सूसमाणा श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा की णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासंति। और करके वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार करके न
अधिक समीप और न अधिक दूर सेवा करते हुए नमस्कार मुद्रा से -ओव० सु० २७ । भगवान की ओर मुंह करके विनयपूर्वक हाथ जोड़कर पर्युपासना
करने लगे।
कूणियस्सागमणं
कोणिक का आगमन १० : तए णं से पवित्तिवाउए इमीसे कहाए लट्ठ समाणे हद्व-तुट्ठ १० : तब वह प्रवृत्तिव्याप्त इस बात को जानकर, बहुत खुश
जाव हियए हाए जाव 'अप्प-महग्घाभरणालंकियसरीरे हुआ यावत् विकसित हृदय हुआ। उसने स्नान किया यावत् अल्प सयाओ गिहाओ पिडणिक्खमइ पडिणिक्वमित्ता चंपाणरि भार वाले किन्तु मूल्यवान आभरणों से शरीर को अलंकृत किया, मझमज्ञण जेणेव कोणियरस रणो गिहे जेणेव बाहिरिया फिर वह अपने घर से बाहर निकला। निकलकर चम्पानगरी के उवट्ठाणसाला जेणेव कूणिए राया भंभसारपुत्ते तेणेव मध्य बाजार से होता हुआ जहाँ कोणिक राजा की बाहरी राजउवागच्छइ, (जाव) एवं वयासी
सभा थी, जहाँ भंभसारपुत्र कोणिक राजा थे वहाँ गया (यावत्) इस प्रकार बोला