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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : वक्षस्कार पर्वत
सूत्र ४२६-४३०
विजयस्स पुरच्छिमेणं, उत्तरकुराए पश्चत्थिमेणं, एत्थ उत्तरकुरु से पश्चिम में महाविदेह वर्ष में गंधमादन नामक वक्षणं महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपव्वए स्कार पर्वत कहा गया है। पण्णत्ते। उत्तर-दाहिणायए, पाईण-पडीणवित्थिन्ने, तीसं जोअण- यह उत्तर-दक्षिण में लम्बा, पूर्व-पश्चिम में चौड़ा एवं सहस्साई दुण्णि अ णउत्तरे जोअणसए छच्च य एगूणबीसइभागे जोअणस्स आयामेणं, णीलवंतवासहर- ३०२०६६ योजन लम्बा है। नीलवन्त वर्षधर पर्वत के पास पव्वयंतेणं चत्तारि जोअणसयाइं उड़डं उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउअसयाई उम्बेहेणं, पंच जोअणसयाई चार सौ योजन ऊँचा, चार सौ कोस गहरा और पांच सौ योजन विक्खंभेणं, तयणंतरं च णं मायाए मायाए उस्सेहब्वेह- चौड़ा है । तदनन्तर क्रमशः ऊंचाई और गहराई में बढ़ता-बढ़ता परिवुड्ढोए परिवड्ढमाणे-परिवड्ढमाणे विक्खंभपरि- किन्तु विस्तार में कम होता-होता मेरु पर्वत के पास पांच सौ हाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे मंदरपब्वयंतेणं पंच योजन ऊँचा, पाँच सौ कोस गहरा एवं अंगुल के असंख्यातवें भाग जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, पंच गाउअसयाई उठवे. जितना चौड़ा कहा गया है । हेणं,' अंगुलस्स असंखेज्जइभाग विक्ख भेणं पण्णत्ते । गयदंतसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे-जाव-पडिलवे। यह गजदन्त के आकार का है, सर्वात्मना रत्नमय एवं स्वच्छ उमओ पासिं दोहि पउमवरवेइयाहिं, दोहि य वण- है-यावत्-मनोहर है । यह दोनों ओर से दो पद्मवरवेदिकाओं संडेहि सम्वओ समंता संपरिक्खिते।
और दो वनखण्डों से सब ओर से घिरा हुआ है। गंधमायणस्स णं वक्खारपब्वयस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे गंधमादन वक्षस्कार पर्वत पर अत्यन्त सम और रमणीय भूमिमागे पण्णत्ते-जाव-आसयंति ।
भूमिभाग कहा गया है-यावत्-(वहाँ देवगण क्रीड़ा करते हैं) -जंबु० बक्ख० ४, सु० ८६ बैठते हैं । गंधमायणवक्खारपव्वयस्स णामहऊ
गंधमादन वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु४३०.५०-से केणटुणं भंते ! एवं बुच्च-गंधमायणे वक्खार- ४३०. प्र०-भगवन् ! गंधमादन वक्षस्कार पर्वत को गंधमादन पव्वए गंधमायणे वक्खारपम्वए?
. वक्षस्कार पर्वत क्यों कहते हैं ? उ.-गोयमा ! गंधमायणस्स णं वक्खारपब्वयस्स गंधे से उ०-गौतम ! गंधमादन वक्षस्कार पर्वत की गंध क्या कोष्ठ
जहाणामए कोटपुडाण वा-जाव-पोसिज्जमाणाण वा, नामक सुगंधी द्रव्य के पुट समान-यावत -जो पीसे जा रहे उक्किरिज्जमाणाण वा, विकिरिज्जमाणाण वा, परि- हों, उत्कीर्ण किये जा रहे हों, बिखेरे जा रहे हों, उपभोग में लिये भुज्जमाणाण वा,-जाव-ओराला मणुष्णा-जाव-गधा जा रहे हों-यावत्-उनसे जो उदार मनोज्ञ-यावत्-गंध अभिणिस्सवंति भवे एयावे।
निकलती है, वैसी है ?
१ सव्वेवि णं वक्खारपव्वया सीआ सीओआओ महानईओ मंदर पव्वयंतेणं पंच-पंचजोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पंच-पंच गाउयउव्वेहेणं पण्णत्ता।
-सम० १०७, सु० २ इन बीस वक्षस्कार पर्वतों में से चार वक्षस्कार पर्वत गजदन्त जैसी आकृति वाले हैं
इनके नाम हैं-(१) माल्यवन्त, (२) सौमनस, (३) विद्युत्प्रभ, (४) गंधमादन । स्थानांग २, ८० ३, सू० ८७ के अनुसार चारों पर्वतों का प्रमाण समान है । सौमनस वक्षस्कार पर्वत और विद्युत्प्रभवक्षस्कार पर्वत देवकुरुक्षेत्र का विभाजन करते हैं। गंधमादन वक्षस्कार पर्वत और माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत उत्तरकुरुक्षेत्र का विभाजन करते हैं। शेष सोलह वक्षस्कार पर्वतों में से चार वक्षस्कार पर्वत (१) चित्रकूट, (२) पद्म (पक्ष्म) कूट, (३) नलिनकूट और (४) एकशैल पर्वत सीता महानदी के उत्तरी किनारे पर है इनके प्रमाणादि का संक्षिप्त वर्णन यहां कहा गया है। (१) त्रिकूट, (२) वैश्रमण, (३) अंजन और (४) मातंजन-ये चार वक्षस्कार पर्वत सीना महानदी के दक्षिणी किनारे पर हैं और ये सीता महानदी के उत्तरी किनारे पर स्थित चारों पर्वतों के समान प्रमाण वाले हैं। यथा-एवं जह चैव सीयाए महाणईए उत्तरं पासं तह चैव दक्खिणिल्ल भाणियव ।
-जंबु० वक्ख० ४, सु०६६
(क्रमशः)