SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र ५७६-५८३ तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन गणितानुयोग ३२१ हरिसलिलामहाणईए पवायाईणं पमाणं- हरिसलिला महानदी के प्रपातादि का प्रमाण५७६. तस्साणं तिगिछिद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तारेणेणं हरिसलिला ५७६. उस तिगिच्छद्रह के दक्षिणी तोरण से हरिसलिला महानदी महाणई पवढा समाणी, सत्त जोअणसहस्साइं चत्तारि अ एकवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोअणस्स दाहिणा- निकलकर ७४२१२ योजन दक्षिण की ओर पर्वत पर बहकर भिमुही पव्वएणं गंता, महया घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगचउ-जोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। विशाल घटमुख से गिरते हुए मुक्तावली हार की आकृति वाले कुछ अधिक चार सौ योजन (चौड़े) प्रपात से नीचे गिरती है । एवं जा चेव हरिकताए वत्तव्वया सा चेव हरीए वि इस प्रकार हरिकान्ता महानदी का जो वर्णन है वही हरिअव्वा । सलिला महानदी का भी जानना चाहिए । जिभिआए, कुण्डस्स, दीवस्स, भवणस्स तं चेव पमाणं । जिबिका, कुण्ड, द्वीप और भवन का प्रमाण पूर्ववत् (हरिअट्रोवि भाणिअव्वो। -जंबु० वक्ख० ४, सु०८४ कान्ता के समान) है। हरिसलिला के नाम का हेतु भी कहना चाहिए। हरिकतामहाणईए पवायाईणं पमाणं हरिकान्ता महानदी के प्रपातादि का प्रमाण५८०. तस्स णं महापउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकता महाणई ५८०. उस महापद्मद्रह के उत्तरी तोरण से हरिकान्ता महानदी पवढा समाणी, सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच य एगूणवीसइभाए जोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गता, महया घडमुह- निकलकर १६०५ - योजन उत्तर की ओर पर्वत पर बहकर पवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग-दु-जोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। विशाल घटमुख से गिरते हुए मुक्तावली हार की आकृति वाले दो सौ योजन से कुछ अधिक (चौड़े) प्रपात से नीचे गिरती हैं। . हरिकता महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिन्मिया हरिकान्ता महानदी जहाँ से गिरती है वहाँ एक विशाल पण्णत्ता। जिह्विका (नाली) कही गई हैं। दो जोअणाई आयामेणं, पणवीसं जोअणाई विक्खंभेणं, वह दो योजन लम्बी है, पच्चीस योजन चौड़ी है, आधा अद्धजोयणं बाहल्लेणं, मगरमुहविउटुसंठाणसंठिआ सव्वरयणा- योजन मोटी है और मगर के खुले मुख जैसी आकार वाली है। मई अच्छा-जाव-पडिरूवा। -जंबु• वक्ख० ४, सु०८० सर्वरत्नमयी है, स्वच्छ है-यावत्-मनोहर है। ५८१. हरिकताणं महाणई पवहे पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं अड- ५८१. (उद्गम स्थान में) हरिकान्ता महानदी के प्रवाह का जोयणं उम्वेहेण, तयणंतरं च मायाए मायाए परिवड्ढमाणी विष्कम्भ पच्चीस योजन का है और उद्वेध (गहराई) आधा योजन परिवड्ढमाणी मुहमूले अड्ढाइज्जाइं जोयणसयाई विक्खंभेषं है, तदनन्तर अनुक्रम से बढ़ते-बढ़ते मुख के मूल (समुद्र में प्रवेश पंचजोयणाई उम्वेहेणं, उमओ पासि दोहिं पउमवरवेइयाहिं करते समय प्रवाह) का विष्कम्भ अढाई सौ योजन चौड़ा है और दोहि य वणसंडेहि संपरिक्खित्ता। उदध पाँच योजन है, इसके दोनों पार्श्व (किनारे) दो वेदिकाओं -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८० से और दो वनखण्डों से घिरे हुए हैं । ५८२. तं चेव पवहे अ मुहमूले अ पमाणं, उब्वेहो अ जं हरिकताए ५८२. (उद्गम स्थान में) प्रवाह का प्रमाण और मुख के मूल -जाव-वणसंडपरिक्खित्ता। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८४ (समुद्र में प्रवेश करते समय प्रवाह) का प्रमाण तथा उद्वेध का प्रमाण हरिकान्ता के समान है-थावत्-वनखण्ड से संपरि क्षिप्त है। ५८३. जबडीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स बाहिणणं हरिवासे दो ५८३. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण (दिशा स्थित) महाणईओ-बहुसमतुल्लाओ-जाव-परिणाहेणं, हरिवर्ष में दो महानदियाँ अधिक सम या तुल्य है-यावत् परिधि की अपेक्षा से एक दूसरी का अतिक्रमण नहीं करती हैं, तं जहा यथा१. हरि (सलिला) २. चेव, हरिकता चेव । (१) हरि (सलिला) और (२) हरिकांता । -ठाणं २, उ० ३, सु० ८८
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy