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गणितानुयोग प्रस्तावना
किये समाप्त नहीं करता है। कारण यह है कि १ अहोरात्र का
३० ६२
भाग स्थित रहने से उस प्रकार के प्रदेश में प्रवर्तमान होकर
कदापि संप्राप्त नहीं होता है इसलिए नियम से २६ अहोरात्र पूर्ण होने पर उक्त पूर्णिमा समाप्त करता है, आगे की दूसरी २X४ भाग गत होता है । १२४
पूर्णिमा पर वह
को
वह तीसरी पूर्णिमा से ९४X६८४६ भागों को १२४ भाग में से ग्रहण करता हुआ समाप्त करता है । यहाँ ६४ modulus है और उस चक्र को बतलाता है जो पुनः पुनः ९४ के गुणनफलों में प्रकट होता है। इसी प्रकार २७वीं पूर्णिमा के लिए ९४X २५ = २३५० भाग लेने के लिए कहा गया है जो वास्तव में ६४x२४ होना चाहिए। (देखिये सू० प्र०, भाग २, पृ० (२१९) ।
इस प्रकार ६२वीं पूर्णिमा स्थल ६४X६२=५८२८ भाग
इस प्रकार विगत गणनानुसार ही ६२वीं अमावस्या को सूर्य पूर्णिमा स्थान से आगे वाले मण्डल के १२४ विभाग कर १२वीं पूर्णिमा उनमें से ४७ भाग पीछे रखकर शेष भागों में सूर्य योग करता है। यह भी पूर्व की भांति शोध का विषय है ।
५८२८ पश्चात् होगा । अर्थात् यह या ४७ सम्पूर्ण मण्डल होने १२४
पर प्राप्त होगी ।
साथ ही तीन
मंडल प्रदेश ज्ञात करने हेतु पूर्व मण्डल के १२४ के ४ भाग करने पर ३१ भाग पूर्व दिशा सम्बन्धी प्राप्त होते हैं। इनमें से २७ भाग अलग रखते हैं, पुनः शेष में से २८वें भाग के २० खण्ड कर उन २० खण्डों में से १८ खण्ड लेते हैं। भागों से अन्यत्र स्थापित चतुर्थ भाग के २०वें की दक्षिण में रहा हुआ बाह्यमण्डल के चतुर्भाग मंडल को भांग मंडल से पूर्व में स्थित होकर उसी मंडल प्रदेश में युग की ६२वीं पूर्णिमा समाप्त करता है।
२
कलाओं से
उस चतु
उपर्युक्त की और भी गहरी जानकारी हेतु शोध करना आवश्यक है।
और चन्द्र या सूर्य को क्रमश: पूर्णिमा या अमावस्या मण्डल प्रदेश निकालने पर मण्डल के ३२ तथा ६४ भाग लेते जाते हैं जो १२४ में से आगे आगे के मण्डल के लेते जाते हैं तभी जबकि ये भाग लेने पर एक मण्डल समाप्त हो जाये ।
सूत्र १०५१, पृ० ५५८-५५६
इस सूत्र में पूर्वोक्त सूत्र के अनुसार सूर्य के मण्डल प्रदेश को जात करना बतलाया है जबकि प्रथम, द्वितीयादि अमावस्याएं होती है। यहाँ भी प्रयांक १४ लिये गये है। ६२ के आगे ३२ ध्रुवांक लेने पर ९४ ध्रुवांक प्राप्त होता है। पुनः ३१ के आगे ३२ ध्रुवांक प्राप्त होता है जहाँ ६२ का अर्द्ध माग ३१ है । इस प्रकार ३१ को चारों ओर लेने पर १२४ भाग बनते हैं। इस प्रकार जो ६२ अमावस्या और ६२ पूर्णिमाओं के घटना स्थल हो सकते हैं वे १२४ बनते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक मण्डल और उसके परवर्तियों को १२४ में विभाजित करते जाते हैं ।
एक तथ्य स्पष्ट है कि अवलोकन किया गया मान सिद्धान्त से मिलना चाहिए। जैन ज्योतिष सिद्धान्त को और भी गहराई से अध्ययन कर इन सभी गणनाओं को मंडल मुहूर्त योजन गति से सिद्ध करने हेतु शोध आवश्यक है ।
सूत्र १०५७ पृ० ५६२, ५६३
यहाँ चन्द्र सूर्य के मण्डलों के ज्यामिति संस्थान दिये गये हैं जो गणितीय दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। छत्राकार मंडल गोलीय त्रिकोणमिति की रचना करते हैं अतएव इस पर शोध आवश्यक है ।
सूत्र १०५८, १०५६, पृ० ५६३, ५३५
यहाँ भी ज्यामितीय दृष्टि से चन्द्र सूर्य मण्डल के समांश तथा पुनः किसी नय दृष्टि से संस्थिति कही गयी है जो महत्व - पूर्ण है । इसमें शोध आवश्यक है ।
सूत्र १०६१, पृ० ५६६-५६८
यहाँ चन्द्र सूर्य के अवभास क्षेत्र, उद्योत क्षेत्र, ताप क्षेत्र और प्रकाश क्षेत्रों के सम्बन्ध में जम्बूद्वीप को जो पाँच चक्रभागसंस्थानों में विभक्त किया है, उस पर शोध होना आवश्यक है । इस सम्बन्ध में पूर्वोक्त ति० प० भाग २ के सातवें अधिकार में ताप क्षेत्र, तम क्षेत्र का विषय भी दृष्टव्य है ।
सूत्र १०६२, पृ० ५६८-५६६
एक नक्षत्रमास २७
८१६
६७
होते हैं। मुहूर्त ।
२१ दिन
६७
का होता है । इसमें
सिद्धान्ततः १ युग में चन्द्र के साथ नक्षत्र ६७ बार योग करते हैं और सूर्य के साथ पाँच बार योग करते हैं । अभिजित
मुहूर्त तक चन्द्र से योग करता है । १ युग में चन्द्र, चन्द्र,
२७ ६७ अभिर्वाधत, चन्द्र और अभिर्वाधत रूप चन्द्रपंचक संवत्सर में ६७ नक्षत्र मास होते हैं। ऐसे युग में १८३० अहोरात्र होते हैं । अर्थात्