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सूत्र -११
ऊर्ध्व लाक : ईशानेन्द्र वर्णक
तेसि णं बहुमज्झदेसभाए पंच वडेंसगा पण्णत्ता । तं जहा
१. अंकवडेंसए, २. फलिहवडेंसए, ३. रयणवडेंस ए, ४. जायरूववडेंसए, ५. मज्झेऽय एत्थ ईसाणवडेंसए । ते णं वडेंसया सव्वरयणामया अच्छा-जाव- पडिरूवा । एत्थ णं ईसाणगाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता,
तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइ भागे ।
सेसं जहा सोहम्मगदेवाणं जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुजमाणा विहति । - पण्ण. प. २, सु. १६८ / १ ईसाणंदरसवण्णओ१०. ईसाने यश्व देविदे देवराया परिवसति सूलपाणी सामचाहने उत्तरढ लोग हिवई अट्ठावीसं विमाणावाससय सहस्सा हिवई ।
अयरंबरवत्थधरे सेसं जहा सक्कस्स- जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणे विहर।
- पण्ण. प. २, सु. १६८/२
-६
पाईं पडीपायए उदीय दाहिणवत्थिये जहा सोहम्मेजाव- पडिरूवे ।
एस्य णं कुमाराणं देवानं बारस विमाणायास सयसहरसा भयंगोतमस्यायें।
ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा-जाव- पडिरूवा । तेसि णं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए पंच वडेंसगा पण्णत्ता, तं जहा
१. असोग बडेंसए, २. सत्तिवण्णवडेंसए, ३. चंपगवडेंसए, कुमारवडेंसए
४.
५.
ते णं वडेंसया सव्वरयणामया अच्छा-जाव- पडिरुवा ।
गणितानुयोग ६६१
उन विमानों के मध्यभाग में पाँच अवतंसक कहे गये हैं, यथा
(१) अंकावतंसक, (२) स्फटिकावतंसक, (३) रत्नावतंसक, (४) जातरूपावतंसक और मध्य में, (५) ईशानावतंसक हैं ।
सकुमारदेवाणं ठाणा
सनत्कुमार देवों के स्थान
११. ५० - कहि णं भंते! सणकुमार देवाणं पज्जताऽपज्जत्ताणं ११. प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सनत्कुमार देवों के
ठाणा पण्णत्ता ?
स्थान कहाँ कहे गये हैं ?
प० – कहि णं भंते ! सणकुमारा देवा परिवसंति ? उ०- गोयमा ! सोहम्मस्स कम्पस्स उपि सर्पाक्स पडिदिसि
बहूई जोयणाई बहूई जोयणसयाई बहूइं जोयणसहस्साइं बहूइं जोयणसयसहस्साई बहुगीओ जोयणकोडीओ बहुगीओ जोयणकोटाकोडोओ उ दूरं उपहता। एएम सकुमारे नाम का पण्यते ।
ये अवतंसक सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं - यावत् प्रतिरूप हैं । यहाँ ईशानकल्पवासी पर्याप्त और अपर्याप्त देवों के स्थान कहे गये हैं ।
(१) उपपात, (२) समुद्घात और स्वस्थान अपेक्षा से ये लोक के असंख्यातवें भाग हैं ।
शेष सौधर्मकल्पवासी देवों के समान - यावत् - दिव्य भोग भोगते हुए रहते हैं ।
ईशानेन्द्र वर्णक
१०. वहाँ देवेन्द्र देवराज ईशान रहता है।
उसके हाथ में शूल हैं, उसका वाहन वृषभ है, वह उत्तरार्ध लोक का अधिपति है. बत्तीस लाख विमानों का स्वामी है । रजरहित वस्त्र धारण करने वाला है, शेष वर्णन शक्र के समान है।
प्र० - भगवन् ! सनत्कुमार देव कहाँ रहते हैं ?
उ०- गौतम ! सौधर्मकल्प के ऊपर समान दिशा में और समान विदिशा में अनेक सौ, अनेक हजार, अनेक लाख और अनेक क्रोडाक्रोडी योजन ऊपर दूर जाने पर सनत्कुमार नाम का कल्प कहा गया है ।
पूर्व-पश्चिम में सम्या, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा, सौधर्म कल्प याप्रति है।
यहां सनत्कुमार देवों के बारह लाख विमान कहे गये हैं।
यथा
वे विमान सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन विमानों के मध्य भाग में पाँच अवतंसक कहे गये हैं,
(१) अशोकावतंसक, (२) सप्तपर्णावतंसक, (३) चंपकावतंसक, (४) ताक, (५) और मध्य में सनत्कुमारावतंसक हैं ।
ये अवतंसक सर्वरत्नमय हैं स्वच्छ — यावत् — प्रतिरूप हैं ।