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६६० लोक-प्रज्ञप्ति
ऊर्ध्व लोक : सौधर्मेन्द्र वर्णक
सोहम्मदसवण्णओ
८. सक्के यत्थ देविंदे देवराया परिवसति ।
वज्जपाणी पुरंदरे सतक्कतू सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिणड्ढलो गाहिवई बसीसविमानावासरूपसहसाहिबई रावणवाहणे ।
सुरिदे अरबरवत्यधरे आलइयमालमउडे गवमचारचितचंचल कुण्डले ।
विलिहिज्ज माणगंडे महिड्ढिोए जाव दिब्वाए लेस्साए दस दिसाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे ।
से णं तत्थ बत्तीसा विमाणावासस्यसहस्ताणं' चउरासीए सामानिय सहस्सोर्ण तावतीसए तावतीलगाउ सोन्याला अहं अयमहिसणं सपरिवारणं । तिम्हं परि साणं * सत्तण्हं अणियाणं बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं वैमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव दिव्वाइं भोगभोगाई मुजाहिर
ईसाणगदेवाणं ठाणा
६. ५० – कहि णं भंते! ईसाणगदेवाणं पज्जसाऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?
प० - कहि णं भंते ! ईसाणगदेवा परिवसंति ? उ०- गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं
इमीसे रयण पभाए पुढवीए बहुसम-रमणिज्जाओ भूमिभागाओ उदय-सूरिय-ह-त-तारा रुवाणं बहूइं जोयणसयाई जाव- बहुगीओ जोयण कोडा कोडीओ उड्ढ दूरं उप्पइत्ता । एत्थ णं ईसाणे णामं कध्ये पण्णत्ते, पाईपडियायए-जाव-अन्जाओ जोवन फोडाकोडीओ परिक्खेवेणं । सव्वरयणामए अच्छे-जाव पडवे ।
तत्थ णं ईसाणगदेवाणं अट्ठावीसं विमाणा वाससय सहस्सा हवंतीतिमायें।*
ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ।
सौधर्मेन्द्र वर्णक
८. यहाँ देवेन्द्र देवराज " शक्र" रहता है।
बह वज्रपाणी = हाथ में वज्र रखने वाला, पुरंदर, शतक्रतु सहस्राक्ष मघवा, पाकशासन, दक्षिणार्ध लोक का अधिपति, बत्तीस लाख विमानों का स्वामी, ऐरावण नामक हाथी के वाहन वाला है ।
वह वहाँ बत्तीस लाख विमान का चौरासी हजार सामानिक देवों का तेतीस पाश्विक देवों का, चार लोकपालों का सपरिवार आठ अग्रमहिषियों का तीन परिषदाओं का सात सेनाओं का, सात सेनापतियों का, (सामानिक देवों से चोगुने ) तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देवों का और अन्य अनेक सौधर्म कल्पवासी वैमानिक देव देवियों का आधिपत्य करता - पण्ण. प. २, सु. १६७/२ हुआ— यावत्-दिव्य भोगोपभोगों को भोगता हुआ रह रहा है । ईशानकल्प देवों के स्थान
वह सुरेन्द्र रजरहित आकाश जैसे वस्त्र धारण करने वाला है, माला और मुकुट पहने हुए हैं, जिसके गालों पर चित्त जैसे चंचल स्वर्ण के नये सुन्दर कुण्डल चमक रहे हैं ।
सूत्र
वह महा ऋद्धि वाला है - यावत्-दिव्य तेज से दस दिशाओं को उद्योतित एवं प्रकाशित करता हुआ रह रहा है।
६. प्र० - भगवन् ! ईशान कल्पवासी पर्याप्त और अपर्याप्त देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ?
प्र० - भगवन् ! ईशान कल्पवासी देव कहाँ रहते हैं ? उ०- गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अतिसम रमणीय भूभाग से ऊपर चन्द्र सूर्य ग्रह नक्षत्र और ताराओं से अनेक सौ योजन - यावत्-अनेक क्रोडाक्रोडी योजन ऊपर दूर जाने पर ईशान नामक कल्प कहा गया हैं ।
पूर्व-पश्चिम में लम्बा - यावत् - असंख्य क्रोडाक्रोडी योजन की परिधि से स्थित है, सर्व रत्नमय हैं स्वच्छ हैं- यावत्प्रतिरूप हैं ।
२
यहाँ ईशान कल्पवासी देवों के अट्ठावीस लाख विमान कहे गये है ।
वे विमान सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं - यावत् प्रतिरूप हैं ।
सम. ८४, सु. ५ ।
जीवा. प. ३, सु. २०८ ।
१
सम. ३२, सु. ४ ।
३ ठाणं अ. ३, उ. २, सु. १६२ ।
४
सम. २८ सु. ४, सोहम्मीसाणेसु दोसु कप्पेसु सट्टिं विमाणावासय सहस्सा पण्णत्ता ।
- सम. ६०, सु. ६