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________________ २८४ लोक-प्रज्ञप्ति १ घंटा-पडाग-परिमंडिअन्गसिहरे धबले मरीइकवयं विजिम्मुअंते, लाउलोडअहिए जाय-या तिर्यक लोक कूट वर्णन तस्स णं सिद्धायतणस्स तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता । सेणं दारा पंचधसवाई उई उच्चगं । अढाइ सयाई दिभे। तावइयं वेव पवेसेणं, वण्णओ जाव- वणमाला । सेआवरकणगभियानं दार तस्स णं सिद्धाययणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पगले से जहागामएवरे वाजाय 1 तस्स सिद्धाय गं बहुसमरमणिरस भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए - एत्थ णं महं एगे देवच्छंदए पण्णत्ते । पंचधाई आयाम-वि साइरेगाई पंचधलाई उई उपच उ०- गोयमा याडस्स पुररियमेणं, सिद्धायपण फुस्स पत्त्वत्थिमेणं- एच णं ण्य दाहिण दृढ भरहरु णाम कसे सिद्धाययणकूडप्पमाणसरिसे जाव । तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए - एत्थ णं महं एगे पासायवडिसए पण्णत्ते । कोसं उड़ढं उच्चत्ते, अद्धकोसं विक्खंभेणं', अब्भुग्गय हिए- जायपासाईए-जाय पि सूत्र ४६५-४६६ सिद्धायतन का अग्र - शिखर घंटा-पताकाओं से परिमंडित है, तथा धवलप्रभा से युक्त, किरणों के समूह को विकीर्ण करता हुआ, लिपा, पुता - यावत्-ध्वजा से युक्त है । सिद्धायतन की तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं । ये द्वार पाँच सौ धनुष ऊँचे हैं । अढाई सौ धनुष चोड़े हैं । 1 इतने ही प्रवेश वाले श्वेत तथा श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तृपिका वाले हैं, यहाँ द्वारों का वर्णन कहना चाहिए - यावत – वनमाला पर्यन्त वर्णन समझ लेना चाहिए । उस सिद्धायतन के अन्दर का भू-भाग अधिक सम एवं रमणीय कहा गया है, वह भू-भाग चर्म से मंढे हुए मृदंगवाद्य के तल जैसा है । उस सिद्धायतन के अन्दर के अतिसम एवं रमणीय भू-भाग के मध्य में एक विशाल 'देवछंदक' कहा गया है । यह पांच सोधनुष लम्बा-चौड़ा है। पाँच सौ धनुष से कुछ अधिक ऊँचा है । सव्वरयणामए - एत्थ णं अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहयमाणमित्ताणं संनिक्खित्तं चिट्ठइ । एवं जाव- धूकडुच्छुगा । - जंबु० वक्ख० १, सु० १३ दाहिणड्डभरहकूडस्स अबदुई पमाणं च ४६६. प० – कहिणं भंते! दीहवेयड्ढपन्यए दाहिणड्ढ भरह कूडे ४६६. प्र० - हे भगवम् ! दीर्घवैताढ्यपर्वत पर दक्षिणार्थं भरतणार्म कुठे पण्णले ? कूट नामक कूट कहाँ कहा गया है ? सर्वरत्नमय है, यहाँ जिन भगवान् की ऊँचाई के बराबर ऊँची एक सौ आठ जिन प्रतिमायें हैं । इसी प्रकार - यावत्-धूपदानियाँ हैं । दक्षिणार्धं भरतकूट की अवस्थिति और प्रमाण उ०- हे गौतम! खण्डप्रपातकूट से पूर्व में सिद्धायतन कूट से पश्चिम में तय पर्वत पर दक्षिणार्थं भरतकूट नामक कूट कहा गया है। इसका प्रमाण सिद्धायतन कूट के सदृश है- यावत्इसके अतिसम एवं रमणीय भू-भाग के मध्य में एक विशाल प्रासादावतंसक कहा गया है। यह एक कोश ऊँचा है, आधा कोश चौड़ा है, चारों ओर से निकलकर फैलती हुई प्रभाओं से मानो वह हंसता हुआ है-पात् - दर्शकों के चित्त को प्रसन्न करने वाला - यावत् - मनोहर है । ''''अत्र यावत्करणात् वक्ष्यमाण-यमिकाराजधानी प्रकरण-गत सिद्धायतन वर्णकेऽतिदिष्टः सुधर्मा सभागमो वाच्यो - यावत् - सिद्धायतनोपरि ध्वजा उपवणिता भवन्ति । यद्यप्यत्र यावत्पदग्राह्य द्वारवर्णक प्रतिमावर्णक धूप कडुच्छादिकं सर्वमन्तर्भवति यथापि स्थानाशून्यतार्थं किञ्चित् सूत्रे दर्शयति, 'तस्स णं सिद्धायतणस्स' इत्यादि । - जम्बू० वृत्ति २ अप्प को मायामेनेति बोध्यम् ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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