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सूत्र ४६६-४६६
तिर्यक् लोक : कूट वर्णन
गणितानुयोग
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है। यह
तस्स णं पासायडिसगस्स बहुमज्झदेसभाए-एत्थ णं महं उस प्रासादावतंसक के मध्य में एक विशाल मणिपीठिका एगा मणिपेढिया पण्णत्ता।
कही गई है। पंचधणुसयाई आयाम-विक्खंभेणं, अड्ढाइज्जाइं धणुसयाइं जो पाँच सौ धनुष लम्बी-चौड़ी है एवं ढाई सौ धनुष मोटी बाहल्लेणं, सव्वमणिमई।
हैं । यह सर्व मणिमय है। तीसे णं मणिपेढिआए उप्पि सिंहासणं पण्णत्तं, सपरिवारं इस मणिपीठिका के ऊपर एक सिंहासन कहा गया है, यहाँ भाणियव्वं'।
-जंबु० वक्ख० १, सु० १४ सिंहासन परिवार कहना चाहिए । दाहिणड्ढभरहकूडस्स णामहेऊ
दक्षिणार्ध भरतकूट के नाम का हेतु४६७. ५०-से केगढणं भंते ! एवं वुच्चइ-"दाहिणड्डभरहकूडे, ४६७. प्र०-हे भगवन् ! दक्षिणार्ध भरतकूट दक्षिणार्ध भरतकूट दाहिणड्ढभरहकूडे ?"
क्यों कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! दाहिणडढभरहकूडे णं दाहिणड्ढभरहे णामं उ०—हे गौतम ! दक्षिणार्ध भरतकूट पर दक्षिणार्ध भरत देवे महिड्ढिीए-जाव-पलिओवमट्टिईए परिवसइ। नाम का महधिक—यावत्-पल्योपम की स्थिति वाला देव
रहता है। से णं तत्थ चउण्हं सामाणिअसाहस्सीणं, चउण्हं अग्ग- वह वहाँ दक्षिणार्ध भरतकूट की दक्षिणार्ध भरता नाम की महिसीणं, सपरिवाराणं, तिहं परिसाणं, सत्तण्हं राजधानी में चार हजार सामानिक देवों का, चार सपरिवार अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, सोलसण्हं आयरक्ख- अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का, सात सेनाओं का, सात देवसाहस्सोणं, दाहिणड्ढभरहकूडस्स दाहिणड्ढभरहाए सेनापतियों का, सोलह हजार आत्मरक्षकदेवों का और अन्य अनेक रायहाणीए, अणेसि बहूणं देवाण य देवीण य-जाव- देव-देवियों का (आधिपत्य करता हुआ)-यावत्-विचरण
विहरइ। -जंबु० बक्ख० १, सु० १४ करता है.... दाहिणडढभरहा रायहाणीए पमाणं च
दक्षिणार्धभरता राजधानी की अवस्थिति और प्रमाण४६८. ५० - कहि णं भंते ! दाहिणड्ढभरहकूडस्स देवस्स दाहिण- ४६८. प्र०-हे भगवान् ! दक्षिणाघ भरतकूट देव की दक्षिणार्ध ड्ढभरहा णाम रायहाणी पण्णत्ता?
भरता, नाम की राजधानी कहाँ कही गई है ? उ०-गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं तिरियम- उ०-हे गौतम ! मंदरपर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्य
संखेज्जदीवसमुद्दे वीईवइत्ता अण्णम्मि जंबुद्दीवे दीवे द्वीप-समुद्र लांघकर और अन्य जम्बूद्वीप द्वीप में दक्षिण में बारह दक्खिणेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता-एत्थ हजार योजन अवगाहन कहने पर दक्षिणार्ध भरतकूट देव की ण दाहिणड्ढभरहकडस्स देवस्स दाहिणभरहा णामं दक्षिणार्ध भरता नाम की राजधानी कहनी चाहिए। रायहाणी भाणियन्वा । जहा विजयस्स देवस्स।
इस राजधानी का वर्णन विजयदेव की राजधानी के समान है। -जंबु० वक्ख० १, सु०१४ सेसाणं सव्वकूडाणं संखित्तवण्णणं
शेष सब कूटों का संक्षिप्त वर्णन४६६. एवं सबकूडा णेयब्वा-जाव-बेसमणकूडे, परोप्परं पुरथिम- ४६६. इस प्रकार वैश्रमणकूट पर्यन्त सब कुट जानने चाहिए। ये पच्चत्थिमेणं ।
कूट परस्पर पूर्व-पश्चिम में है। इमेसि वण्णावासे-गाहा
इन कूटों का वर्णन-गाथार्थ । मज्झे वेअड्डस्स उ, कणयामया तिण्णि होंति कूडा उ। वैताढ्य पर्वत के मध्य में तीन कूट कनकमय हैं, शेष सभी सेसा पव्वयकडा, सव्वे रयणामया होति । पर्वतकट रत्नमय हैं।
१ दक्षिणार्द्ध भरतकूटाधिप-सामानिकादिदेवयोग्यभद्रासनसहितमिति । २ अत्र सूत्रेऽदृश्यमानमपि ‘से तेण?णमित्यादि सूत्रं स्वयं ज्ञयं' । ३ "पूर्व पूर्व पूर्वस्या उत्तरमुत्तरमपरस्याम्, पूर्वापरविभाग स्यापेक्षिकत्वात्....