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________________ सूत्र १०२५ प० तिर्यक्लोक : सूर्यो की एक-दूसरे से अन्तर गति अण्णमण्णस्स अन्तरं कट्टु सूरिया चारं चारंति, अन्तर करके गति करता है और ऐरावतीय सूर्य भारतीय सूर्य से आहितेति एक्जा, एगे एवमाहं, एक सौ पैंतीस योजन का अन्तर करके गति करता है । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है एगे पुण एवमाहंसु ४- १. ता एवं दीवे, एवं समुद्दे अण्णमण्णस्स अन्तरं कट्टु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाह ५- २. ता दो दीवे, दो समुद्दे अण्णमण्णस्स अन्तरं कट्टु सूरिया चारं चरंति आहितेति बजाए एवाहं एगे पुण एवमाहंसु ६- ३. ता तिष्णि दीवे, तिष्णि समुद्दे, अण्णमण्णस्स अन्तरं कट्टु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वएज्जा, एगे एवमा वयं पुण एवं वयामो ता पंच पंच जोपा पणतीस एट्टिभागे जस एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अन्तरं अभिवड्ढे माणा वा निवड्ढे माणा वा सूरिया चारं चरंति, आहितेति वएज्जा, -तत्थ णं को हेऊ ? आहितेति वएज्जा, उ०ता अयं णं जंबुद्वीचे बीचे सम्यदीय- समुद्राणं सम्वत राए सब्वबुड्डा वट्ट - जाव- जोयणसयसहस्समायाम विक्खंभे णं, तिणि जोयणसयसहस्साइं दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिष्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस अंगुलाई किचि बिसेसाहिए परिक्लेवे णं पण्णत्ते, १. ता जया णं एते दुवे सूरिया सव्वमंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं णवणउई जोयणसहस्साई, छच्च चत्ताले जोयणसए अण्णमण्णस्स अन्तरं कट्टु चारं चरंति आहितेति वएज्जा, तपाणं उत्तमकटुपले उनकोसए अङ्गारसमुहले बसे भवइ जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, २. ते निक्खममाणा सूरिया णवं संवच्छरं अयमाणा पढमंसि अहोरत्तंसि अन्मिंतरानंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, गणितानुयोग ५१६ ता जया णं एते दुवे सूरिया अन्मिंतरानंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, तया णं णवणउई जोयण (४-१) भारतीय सूर्य ऐरावतीय सूर्य से एक द्वीप का अन्तर करके गति करता है और ऐरावतीय सूर्य भारतीय सूर्य से एक समुद्र का अन्तर करके गति करता है । एक (मत वालों ने फिर ऐसा कहा है (५-२) भारतीय सूर्य ऐरावतीय सूर्य से दो द्वीप का अन्तर करके गति करता है और ऐरावतीय सूर्य भारतीय सूर्य से दो समुद्र का अन्तर करके गति करता है । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (६-३) भारतीय सूर्य ऐरावतीय सूर्य से तीन द्वीप का अन्तर करके गति करता है ऐरावतीय सूर्य भारतीय सूर्य से तीन समुद्र का अन्तर करके गति करता है । हम फिर इस प्रकार कहते हैं। प्रत्येक मण्डल में ये दोनों सूर्य पाँच पाँच योजन तथा एक योजन के इगसठ भागों में से पैंतीस भाग जितना अन्तर एक दूसरे से बढ़ाते हुए अथवा घटाते हुए गति करते हैं । प्र० - इस ( उक्त ) मान्यता ( की सिद्धि) के सम्बन्ध में क्या हेतु है ? कहें। उ०- यह जम्बूद्वीप (नायक) द्वीप सब द्वीप-समुद्रों के मध्य में है, सबसे छोटा है, वृत्ताकार है यावत् — एक लाख योजन का लम्बा चौड़ा है तथा तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन कोश एक सौ अठावीस धनुष तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुछ अधिक की परिधि वाला कहा गया है। (१) जब ये दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करते हैं तब वे निन्यानवे हजार छः सौ चालीस योजन का पेरस्पर अन्तर करके गति करते हैं । तब परम उत्कर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । (२) (सर्वाभ्यन्तर मण्डल से निकलते हुए वे दोनों सूर्य नये संवत्सर का दक्षिणायन प्रारम्भ करते हुए प्रथम अहोरात्र में आभ्यन्तरानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करते हैं । जब ये दोनों सूर्य आभ्यन्तरानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करते हैं तब वे निन्यानवे हजार छः सौ पैंतालीस योजन
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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