________________
११२
लोक-प्रज्ञप्ति
अधोलोक
सूत्र २२८-२२६
मज्झिमरुयगवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीओ- मध्यरुचक पर्वत पर रहने वाली चार दिशाकुमारियां--- २२८. मज्झिमख्यगवत्थवाओ चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ २२८. मध्यरुचक पर्वत पर रहने वाली चार महादिशाकुमारियाँ सएहिं सएहिं कूडे हिं, एवं तं चैव पुव्ववणियं-जाव-विहरंति, अपने-अपने कूटों पर 'यहाँ पूर्व वणितक है'-यावत्-रहती
है। यथा-आधी गाथा का अर्थ१. रूया, २. रूयासिया च्चेव,
१. रूपा,
२. रूपांशिका, ३. सुख्या , ४. रूयगावई'।
३. सुरूपा,
४. रूपकावती। -जंबु० वक्ख० ५, सु० ११४ पुढविकाइयाणं ठाणाइं
पृथ्विकायिक जीवों के स्थान२२६. प० कहि णं भंते ! बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगागं ठाणा २२६. भगवन् ! पर्याप्त बादर पृथ्विकायिकों के स्थान कहाँ कहे पण्णत्ता?
गये हैं ? उ० गोयमा! सट्टाणेणं अट्ठसु पुढविसु तं जहा–१. रयणप्प- उ०-गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से आठ पृथ्वियों में
भाए, २. सक्करप्पभाए, ३. वालुयप्पभाए, ४. पंकप्प- हैं-यथा १. रत्नप्रभा में, २. शर्कराप्रभा में, ३. वालुकाप्रभा में, भाए, ५. धूमप्पभाए, ६. तमप्पभाए, ७. तमतमप्पभाए, ४. पंक-प्रभा में, ५ धूमप्रभा में, ६. तम-प्रभा में, ७. तमस्तमप्रभा ८. इसीपब्भाराए।
में, ८. ईषत्प्रागभारा पृथ्वी में। (१) अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु णिरएसु (१) अधोलोक में-पातालों में, (भवनवासियों के) भवनों में, निरयावलियासु निरयपत्थडेसु ।
भवनप्रस्तटों में, नरकों में, नरक-पंक्तियों में और नरक-प्रस्तटों
में हैं। (२) उड्ढलोए कप्पेसु बिमाणेसु विमाणावलियासु (२) ऊर्ध्वलोक में-कल्पों में, विमानों में, विमान-पंक्तियों विमाणपत्थडेसु ।
में और विमान-प्रस्तटों में हैं। (३) तिरियलोए टकेसु कडेसु सेलेसु सिहरीसु पन्भारेसु (३) तिर्यक्लोक में-टंकों में, कूटों में, शैलों में, शिखरों
विजएस वक्खारेसु वासेसु वासहरपव्वएस वेलासु में, प्राग्भारों में (गिरि-गुफाओं में), (महाविदेह के) विजयों में, वेइयासु वारेसु तोरणेसु दीवेसु समुद्दे सु-एत्थ णं वक्षस्कारों में (सीमा सूचक पर्वतों में), वर्षों में, (क्षेत्रों में) वर्षबादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। धर पर्वतों में, बेलाओं में (समुद्र के किनारों में-जहाँ समुद्र के
पानी का ज्वार आता है), वेदिकाओं में, छारों में, तोरणों में, द्वीपों में और समुद्र-तलों में पर्याप्त बादर पृथ्विकायिकों के
स्थान कहे गये हैं। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे ।
उपपात की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवे भाग में उत्पन्न
होते हैं। समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे ।
समुद्घात की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में समृद्--
घात करते हैं। सटाणेण लोयस्स असंखेज्जइभागे।'
स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में इनके. स्थान हैं।
१ (क) चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. ख्या, २. रूयंसा, ३. सुरूवा, ४. रूपावई।
-ठाणं ४, उ०१, सु० २५६. (ख) छ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. रुया, २. स्वंसा, ३. सुरूवा, ४. रूपवई, ५. रूपकता, ६. रूवप्पभा ।
--ठाणं ६. सु० ५०८. ये दिशाकुमारियाँ दिशाकुमार की अग्रमहिषियाँ हैं । यह ठाणं, अ० ६ सू० ५०८ से स्पष्ट हो जाता है।
शेष दिशाकुमारियाँ किनकी अग्रमहिषियाँ है ? इसका समाधान अन्वेषणीय है। २ सुहमा सव्वलो गंमि, लोगदेसे य बायरा, -उत्त० अ० ३६, गाथा ७८ । ।