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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : सूर्य को उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति
सूत्र १०४६-१०४७
अद्धमण्डलसंठिई संकममाणे संकममाणे उत्तराए अंत- संस्थितियों की ओर संक्रमण करता करता उत्तर के आभ्यन्तर राए भागस्स तस्साविपदेसाए सम्वन्भंतरं दाहिणं अद्ध- भाग के आदिप्रदेशों से सर्व आभ्यन्तर दक्षिणार्धमण्डल-संस्थिति मण्डलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ ।
को प्राप्त करके गति करता है । ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरं वाहिणं अद्धमण्डल- जब सूर्य सर्व आभ्यन्तर दक्षिणार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त संठिति उवसंकमित्ता चार चरइ, तया णं उत्तमकट्ठ- करके गति करता है तब (मण्डल के अन्तिम भाग को प्राप्त पत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया करने पर) उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य दुवालसमुहुत्ता राई भवइ।
बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मास्स ये दूसरे छः मास (उत्तरायण के) हुए, यह दूसरे छः मास पज्जवसाणे,
का अन्त हुआ। एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छ- यह आदित्य संवत्सर है, यह आदित्य संवत्सर का अन्त है। रस्स पज्जवसाणे,
-सूरिय० पा० १, पाहु० २, सु०१२ सूरस्स उत्तरा अद्धमण्डलसंठिई
सूर्य की उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति४७. ५०-ता कहं ते उत्तरा अद्धमण्डलसंठिई आहितेति वदेज्जा? ४७. प्र०-उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति किस प्रकार की कही गई
है ? वह कहें। उ०-ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सस्व दीव-समुद्दाणं सम्बन्भंत- उ०—यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सर्व द्वीप-समुद्रों के मध्य
राए सव्व खुड्डागे बट्ट-जाव-जोयणसयसहस्समायाम- में सबसे छोटा वृत्ताकार है-यावत्-एक लाख योजन का बिक्खंभे गं। तिण्णि जोयणसयसहस्साइं, दोन्नि य लम्बा-चौड़ा है और तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं, कोश एक सौ अट्ठावीस धनुष तेरह अंगुल तथा आधे अंगुल से तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परि- कुछ अधिक की परिधि वाला कहा गया है । क्खेवे णं पण्णत्ते, ता जया णं सूरिए सवनभंतरं उत्तरं अद्धमण्डलसंठिई जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्को- करके गति करता है तब परम प्रकर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अट्ठारह सए अट्ठारस मुहत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालस- मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि मुहुत्ता राई भवइ ।
होती है। से निक्खममाणे सूरिए गवं संवच्छर अयमाणे पढमंसि सर्व आभ्यन्तर मण्डल से निकलता हुआ सूर्य नये संवत्सर अहोरत्तंसि उत्तराए अन्तराए भागाए तस्साइपएसाए का दक्षिणायन को प्रारम्भ करता हुआ प्रथम अहोरात्र में उत्तर अभंतराणंतरं दाहिणं अद्धमण्डलसंठिई उवसंकमित्ता के आभ्यन्तर भाग के आदि प्रदेश से आभ्यन्तरानन्तर दक्षिणार्ध चारं चरइ।
मण्डल-संस्थिति को प्राप्त करके गति करता है। ता जया णं सूरिए अब्भतराणंतरं दाहिणं अद्धमण्डल- जब सूर्य आभ्यन्त रानन्तर दक्षिणार्ध मण्डल-संस्थिति को संठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । तया णं अट्ठारसमुहुत्ते प्राप्त करके गति करता है तब एक मुहूर्त के इकसठ भागों में दिवसे भवइ, दोहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणे, दुवालस- से दो भाग कम अठारह मुहूर्त का दिन होता है और एक मुहूर्त मुहुत्ता राई भवइ, बोहि एगट्ठिभागमुहुर्तेहि अहिया । के इकसठ भाग तथा दो भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि
होती है। से णिक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए (आभ्यन्तरानन्तर मण्डल से) निकलता हुआ वह सूर्य दूसरे अन्तराए भागाए तस्साइपएसाए अभिंतराणंतरं तच्चं अहोरात्र में दक्षिण के आभ्यन्तर भाग के आदि प्रदेश से उत्तरं अद्धमण्डलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । आभ्यन्तरानन्तर तृतीय उत्तरार्ध मण्डल-संस्थिति को प्राप्त करके
गति करता है।
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चन्द. पा. १ सु. १२ ।
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