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________________ ३७४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : पुष्करवरद्वीप वर्णन सूत्र ७५१-७५२ w उ०-गोयमा ! पुक्खरवरे गं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं उ०-पुष्करवरद्वीप में स्थान स्थान पर पद्मवृक्ष हैं और बहवे पउमरुक्खा पउमवणसंडा णिच्चं कुसुमिता-जाब- पद्म वनखण्ड हैं वे नित्य कुसुमित हैं-यावत्-स्थित हैं । चिट्ठन्ति । पउम-महापउमरुक्खे-एत्थ णं पउम-पुण्डरीआ णामं (उक्त) पद्म और महापद्मवृक्ष पर पद्म और पुण्डरीक दुवे देवा महिड्ढिया-जाव-पलिओवमद्वितीया परि- नामक दो देव रहते हैं जो महधिकः-यावत्-पल्योपम की वसति । स्थिति वाले हैं ! से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चति-पुक्खरवरदीवे, गौतम ! इस कारण से पुष्करवरद्वीप को पुष्करवरद्वीप कहा पुक्खरवरदीवे । जाता है। अदुत्तरं च णं गोयमा ! पुक्खरवरे दीवे सासए-जाव- अथवा गौतम ! पुष्करवरद्वीप (यह नाम) शाश्वत है—यावत् णिच्चे। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७६ -नित्य है । माणुसोत्तरपव्वयस्स पमाणं मानुषोत्तर पर्वत का प्रमाण७५२. ५०-माणुसुत्तरे णं भंते ! पन्वते केवतियं उड्ढं उच्चत्तणं? ७५२. प्र०-भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वत ऊपर की ओर ऊँचा केवतिय उब्वेहेणं? केवतियं मूले विक्खंभेणं ? केवतियं कितना है ? भूमि में गहरा कितना है ? भूमि में चौड़ा कितना मझ विक्खंभेणं ? केवतियं सिहरे विक्खंभेणं ? केव- है ? मध्य में चौड़ा कितना है ? शिखर पर चौड़ा कितना है ? तियं अंतो गिरिपरिरएणं? केवतियं बाहिं गिरिपरि- भूमि में उस पर्वत की परिधि कितनी है ? भूमि के बाहर उस रएण ? केवतियं मझे गिरिपरिरएणं, केवतिय उरि पर्वत की परिधि कितनी है ? मध्य में उस पर्वत की परिधि परिरएणं? कितनी है ? उ०-गोयमा ! माणुसुत्तरे गं पन्वते सत्तरस एक्कवीसाइं उ०-गौतम ! मानुषोत्तर पर्वत सत्रह सौ इकवीस (१७२१) जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेण , चत्तारि तीसे जोयणसए योजन ऊपर की ओर ऊंचा है। चार सौ तीस (४३०) योजन कोसं च उव्वेहेणं, __ और एक कोश भूमि में गहरा है । मूले दस बावीसे जोयणसते विक्खंभेणं, मझे सत्त- मूल में एक हजार बावीस (१०२२) योजन चौड़ा है । मध्य तेवीसे जोयणसते विक्ख भेणं, उरि चत्तारि चउवीसे में सात सौ तेवीस (७२३) योजन चौड़ा है । ऊपर चार सौ जोयणसते विक्खंभेणं, चौवीस (४२४) योजन चौड़ा है। अंतो गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च भूमि में उस पर्वत की परिधि एक करोड़, बियालीस लाख, सयसहस्साइं तीसं च सहस्साई दोणि य अउणापण्णे तीस हजार, दो सौ एगुनपचास (१,४२,३०,२४६) योजन से कुछ जोयणसते किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, अधिक है। बाहिरगिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च भूमि के बाहर उस पर्वत की परिधि एक करोड़, बियालीस सयसहस्साई छत्तीसं च सहस्साई सत्त चोदसोत्तरे लाख, छत्तीस हजार, सात सौ चौदह (१,४२,३६,७१४) योजन जोयणसते परिक्खेवेणं, की है। मज्झे गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च मध्य में उस पर्वत की परिधि एक करोड़, बियालीस लाख सतसहस्साई चोत्तीसं च सहस्साइं अट्ठतेवीसे जोयण- चौतीस हजार, आठ सौ तेवीस (१,४२,३४,८२३) योजन की है । सते परिक्खेवेणं, उरि गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च ऊपर उस पर्वत की परिधि एक करोड़, बियालीस लाख, सयसहस्साई बत्तीसं च सहस्साई नव य बत्तीसे जोयण- बत्तीस हजार, नव सौ बत्तीस (१,४२,३२,६३२) योजन की है। सते परिक्खेवेणं, मूले वित्थिण्णे, मज्झे सखिते, उप्पि तणुए, मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर से पतला । १. सम०१७, सू०३ । २ ठा० १०, सु०७२४ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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