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________________ सूत्र ७५२-७५६ तिर्यक् लोक : पुष्करवरद्वीप वर्णन गणितानयोग ३७५ अंतो सण्हे, मज्झे उदग्गे, बाहिं दरिसणिज्जे, ईसि अन्दर से चिकना, मध्य में श्रेष्ठ, ऊपर से दर्शनीय बैठे हुए सण्णिसण्णे सीहणिसाई, अवद्धजवरासिसंठाणसंठिए, सिंह के समान एक ओर से नीचा तथा एक ओर से ऊँचा, आधे सध्वजंबूणयामए अच्छे सण्हे-जाव-पडिरूवे । यवों की राशि के आकार से स्थित, सम्पूर्ण पर्वत जम्बूनद स्वर्ण मय है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है-यावत्-मनोहर है। उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेदियाहिं दोहि य वण- (वह पर्वत) दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं से एवं दो। संहि सव्वओ समता संपरिक्खित्ते। वण्णओ दोण्ह वनखण्डों से चारों ओर से घिरा हुआ है। यहाँ दोनों का वर्णक वि। -जीवा. पडि. ३, उ. २. सु. १७८ कहना चाहिए। माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स चत्तारिकूडा मानूषोत्तर पर्वत के चार कूट७५३. माणुसुत्तरस्स णं पव्वयस्स चउदिसि चत्तारि कूडा पण्णत्ता, ७५३. मानुषोत्तर पर्वत के चारों दिशाओं में चार कूट कहे गये तं जहा--१. रयणे, २. रयणुच्चए, ३. सवरयणे, ४. रयण- हैं । यथा-(१) रत्नकूट, (२) रत्नोच्चयकूट, (३) सर्व रत्नकूट, संचए। -ठाणं अ० ४, उ० २, सु० ३०० (४) रत्नसंचयकूट । माणुसोत्तर पव्वयस्स नामहेऊ - मानुषोत्तर पर्वत के नाम का हेतु७ १४. ५०–से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति -"माणुसुत्तरे पव्वत्ते, ७५४ प्र०-भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत मानुषोत्तरपर्वत ही क्यों माणुसुत्तरे पब्बते ? कहा जाता है ? उ.-गोयमा ! माणुसुत्तरस्स णं पब्वयस्स अंतो मणुया, उप्पि उ०- गौतम ! मानुषोत्तरपर्वत के अन्दर की ओर मनुष्य सुवण्णा, बाहिं देवा। रहते हैं, ऊपर सुवर्णकुमार (भवनवासीदेव) रहते हैं, और बाहर देव (ज्योतिषीदेव) रहते हैं। अदुत्तरं च णं गोयमा ! माणुसुत्तरपव्वतं मणुया ण अथवा गौतम ! जंघाचारण, विद्याधर और देव अपहृत कयाइ वोतिवइंसु वा, वीतिवयंति वा, बीतिवइस्संति मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी मनुष्य ने मानुषोत्तर पर्वत का वा, णण्णत्थ चारणेहिं वा, विज्जाहरेहि वा, देवकम्मुणा अतीत में उल्लंघन किया नहीं था, वर्तमान में उल्लंघन करते वावि। नहीं है और भविष्य में भी उल्लंघन करेंगे नहीं। से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"माणुसुत्तरे पन्वते गौतम ! इस कारण से मानुषोत्तरपर्वत मानुषोत्तरपर्वत हो माणुसुत्तरे पन्वते । कहा जाता है । अदुत्तरं च णं गोयमा ! माणुसुत्तरे पव्वए' सासए अथवा गौतम ! मानुषोत्तरपर्वत यह नाम शाश्वत है -जाव-णिच्चे ति।-जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७८ यावत्-नित्य है। पुक्खरवरदीवस्स दुवे भागा पुष्करवरद्वीप के दो विभाग७५५. पुक्खरवरदीवस्स गं बहुमज्झदेसभाए-एत्थ णं माणुसुत्तरे ७५५. पुष्करवरद्वीप के ठीक मध्य भाग में वृत्त वलयाकार नाम पव्वते पण्णत्ते वट्ट वलयागारसंठाणसंठिते जे गं पुक्खर- संस्थान से स्थित मानुषोत्तर नामक पर्वत कहा गया है जो वरं दीवं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठन्ति, तं जहा- पुष्करवरद्वीप के दो विभाग करता हुआ स्थित है, यथाअभितरपुक्खरद्धं च, बाहिरपुक्खरद्धं च । (१) आभ्यन्तर पुष्करार्ध (२) बाह्य पुष्करार्ध । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७६ अभितर पुक्खरद्धस्स संठाणं आभ्यन्तर पुष्कराध का संस्थान७५६. ५०-अभिंतरपुक्खरद्धे णं भंते ! केवतियं चक्कवालविक्खं- ७५६. ५०-भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्कराध की चक्राकार चौड़ाई भेणं, केवतियं परिक्खैवेणं पण्णते ? ___ कितनी कही गई है और परिधि कितनी कही गई है ? १ ठाणं अ०३, उ० ४, सु० २०४, मानुषोत्तरपर्वत के नाम का उल्लेख है। २ सूरिय० पा० १६ सु० १००।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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