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गणितानुयोग : प्रस्तावना
१६
इसकी बाहु २०१६५३+
योजन दी गई है जो
३६
३ भाग किया जाय तो 1 योजन होता है जिसे है में जोड़ने
सूत्र ३४६, पृ० २३४--
मन्दर की चूलिका के सम्बन्ध में ऊँचाई ४० योजन, मूल में
१२ योजन, ऊपर ४ योजन है। ये मोन ति० प० भाग १/४, ति० प० भाग १/४ गाथा १७५५ में २०१
में २०१६५ दी गई है। गाथा १७५५ से मिलते हैं। परिधि ज्ञात करने हेतु शोध का
विषय बनता है । मूल में मान ३७ योजन से अधिक, ऊपर बारह यह भी शोध का विषय है।
योजन से कुछ अधिक बताया गया है। मन्दर पर्वत सम्बन्धी यदि यहाँ १६ भागों में से एक का विस्तृत शोध लेख हेतु देखिए
ति० प० ग०, पृ० ६३-६४.
तथा, लिश्क एवं शर्मा, “नोशन ऑफ आब्लिक्विटी ऑफ
एकलिप्टिक इम्प्लायड इन दा कान्सेप्ट ऑफ माउंट मेरु इन पर 2 हो जाता है। यहाँ भाग का भाग अर्थ लिया जाना
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति", जैन जर्नल, कलकत्ता, १६७५, पृ० ७६-६२ । चाहिए जैसा सूर्यप्रज्ञप्ति में कई स्थानों में लिया गया है जो सूत्र ३५३-३७०, पृ० २३६-२३७टीकाकारों ने एक ही हर बना रहने के लिए भिन्न को भिन्न एवं इन गाथाओं में दाशमिक संकेतना में संख्याएँ दृष्टव्य हैं। भिन्न के अर्द्ध भागहार में तोड़कर लिखा है। यहाँ अर्द्ध भाग
सूत्र ३७१, पृ० २३७ - पारिभाषिक शब्द बड़े महत्व का है और नवीन शैली में भिन्न लिखे जाने का इतिहास बतलाता है।
जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से अव्यवहित अन्तर ११२१ योजन
दूरी पर ज्योतिष चक्र प्रारम्भ होता है। इसकी जीवा ६४१५६ २. योजन है जो ति० प० भाग १/४ सूत्र ३७५, पृ० २३६-- गाथा १७५२ से मिलती है।
नन्दनवन ५०० योजन विस्तार वाला है। ति० प० भाग
१/४, गाथा १९८६ में यही मान है। इसका धनुपृष्ठ १२४३४६ - योजन है जो ति० प० भाग ।।
बाहर गिरिविष्कम्भ ६६५४.योजन है । ति० प० भाग १/४ गाथा १७५३ से मिलता है।
१/४, गाथा १६६० में भी यही मान है। सूत्र ३४८, पृ०२३३
बाहर की परिधि ३१४७६ योजन से किंचित् अधिक है। मन्दर पर्वत ६६००० योजन ऊँचा है एवं १००० योजन ति०प० भाग १/४, गाथा १९६१ में भी यही मान है। गहरा है । मन्दर पर्वत की मूल में चौड़ाई १००६०१४योजन है। इसी प्रकार अन्तर का गिरिविष्कम्भ ८६५४० योजन तथा है । यही मान ति० प० भाग १/४ गाथा १७८१, १७८२ में दिये गये हैं । ये सभी दाशमिक संकेतना में हैं।
गिरि परिधि २८३१६ । योजन, ति० ५० भाग १/४ गाथा भूतल पर इसकी चौड़ाई १०००० योजन और ऊपर के तल पर (शिखर पर) इसकी चौड़ाई १००० योजन है। यही मान १६६२-१९६३ के मान से मिलती है। ति० प० भाग १/४ गाथा १७८३ में दिये गये हैं।
यहाँ परिधि के किस मान से निकाली गई है खोजना ये सभी दाशमिक संकेतना में हैं।
सरल है। मुल में इसकी परिधि ३१६१०३ योजन तथा भतल पर सूत्र २७३, पृ० २३६-२४०
आभ्यंतर गिरिविष्कम्भ एवं गिरि परिधि के मान भी ३१६२३ योजन तथा ऊपर के तल पर ३१६२ से कुछ अधिक ति० प० भाग १/४ गाथा १९८५, १९८६ से क्रमशः मिलते हैं। योजन दी गई है । ये सभी मान आनुमानिक हैं तथा 7 के विभिन्न ५०० योजन का माप भी ति०प० भाग १/४ गाथा १९८१ मानों के लिए शोध के विषय हैं।
से मिलता है।
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