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________________ सूत्र ३६-३८ काल लोक: संवत्सरों की संख्या और उनके लक्षण गणितानुयोग ७१३ (१) ओरालिय-पोग्गलपरियट्टे, (१) औदारिक पृद्गल परावर्त, (२) वेउब्धिय-पोग्गलपरियट्ट, (२) वैक्रिय पुद्गल परावर्त, (३) तेया पोग्गलपरियट्ट, (३) तेजस पुद्गल परावर्त, (४) कम्मा पोग्गलपरियट्ट, (४) कार्मण पुद्गल परावर्त, (५) मण पोग्गलपरियट्ट, (५) मन पुद्गल परावर्त, (६) वइ पोग्गलपरियट्ट, (६) वचन पुद्गल परावर्त, (७) आणुपाणु पोग्गलपरियट्टे । (७) श्वासोच्छवास पुद्गल परावर्त । -भग. स. १२, उ. ४, सु. १५ संवच्छाराणं संखा लक्खणं च संवत्सरों की संख्या और उनके लक्षण३७.५०–ता कइ णं संवच्छरे? आहिए त्ति वएज्जा, ३७. प्र०-संवत्सर कितने कहे हैं ? । उ०-ता पंच संवच्छरा पण्णता, तं जहा उ०-संवत्सर पाँच कहे गये हैं, यथा(१) णक्खत्त संवच्छरे, (१) जुगसंवच्छरे, (३) पमाण- (१) नक्षत्र संवत्सर, (२) युग संवत्सर, (३) प्रमाण संवत्सर, संवच्छरे, (४) लक्खणसंवच्छरे, (५) सणिच्छर- (४) लक्षण संवत्सर, (५) शनैश्चर संवत्सर। संवच्छरे ।' – सूरिय. पा. १०, पाहु. २०, सु. ५४ पंचण्ह संवच्छराणं लक्खणाइं पाँच संवत्सरों के लक्षणगाहाओ गाथार्थणक्खत्त संवच्छरं लक्खणं नक्षत्र संवत्सर के लक्षण३८. समगं णक्खत्ता जोयं जोएंति, समगं उडु परिणमंति । ३८. जिस संवत्सर में सभी नक्षत्र योग करते हैं और सभी ऋतुएँ नच्चण्हं नाइसीए, बहु उदए होइ नक्खत्ते ॥१॥ परिणमित होती हैं उसमें न अधिक गरमी और न अधिक शरदी होती है किन्तु वर्षा अधिक होती है । वह नक्षत्र संवत्सर है । चंदसंवच्छर लक्खणं चन्द्र संवत्सर के लक्षणससि समग पुण्णमासि, जोइं ता विसमचारि णक्खत्ता। जिस संवत्सर की सभी पूर्णिमाओं में चन्द्र विषमचारी कडुओ बहु उदगवओ, तमाहु संवच्छर चंदं ॥२॥ नक्षत्रों से योग करे, कडवे पानी की वर्षा अधिक हो उसे चन्द्र संवत्सर कहा है। उडु (कम्म) संवच्छर लक्खणं ऋतु (कर्म) संवत्सर के लक्षणविसमं पवालिणो परिणमंति, अणउसु दिति पुष्पफलं । जिस संवत्सर में (जिस वनस्पति की अंकुरित-पल्लवित होने वासं न सम्मवासइ, तमाहू संवच्छरं कम्मं ॥३॥ की जो ऋतु हो उसमें न होकर) अन्य ऋतु में अंकुरित हो, पत्र पुष्प-फल लगे तथा वर्षा पर्याप्त न हो, उसे ऋतु (कर्म) संवत्सर कहा है। आइच्च संवच्छर लक्खणं आदित्य संवत्सर के लक्षणपुढवि-दगाणं च रसं, पुप्फफलाणं च देइ आइच्चे ।। जिस संवत्सर में पृथ्वी, जल, और पुष्प-फलों को रस अप्पेण वि वासेणं, सम्मं निप्फज्जए सस्सं ॥४॥ आदित्य देता है तथा अल्प वर्षा से धान्य पर्याप्त उत्पन्न होता है उसे आदित्य संवत्सर कहा है। अभिवुढिय संवच्छर लक्खणं अभिवधित संवत्सर के लक्षणआइच्चतेय तविया, खण-लव-दिवसा उऊ परिणमंति। जिस संवत्सर में सूर्य के तेज से तप्त क्षण-लव-दिन होने पर पूरेड रेणु-थलयाई, तमाहु अभिवड्ढिय जाण ॥५॥ सारी पृथ्वी वर्षा के जल से तप्त हो जाती है तथा सभी ऋतुएँ यथासमय परिणमित होती है-उसे अभिवधित संवत्सर कहा -सूरिय. पा. १०, पाहु. २०, सु. ५८ है-ऐसा जानो। १ ठाणं अ० ५, उ० ३, सु० ४६० । . २ (क) ठाणं ५, उ० ३, सु०४६० । (ख) जंबु० वक्ख० ७, सु० १५१ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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