SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 857
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६० लोक- प्रज्ञप्ति उवं लोक : सिद्ध स्थान सिद्ध ठाणा ७८. प० - कहि णं भन्ते ! सिद्धाणं ठाणा पण्णत्ता ? प० कहि णं भन्ते ! सिद्धा परिवर्तति ? उ०- गोपमा ! सम्बट्टसिद्धस्त महाविमाणस्स उपराओ भिगाओ दुवाल जो उ अबहाए, एत्थ गं ईसोपारा गार्म पुढची पणता । पणयालीसं जोयणसहस्साणि आयाम विक्खंभेणं । एगा जोयण कोडी बायालीसं च सयसहस्साइं तीस सहस्साई दोष्ण व अमाप जोयस किचि बिसेसाहिए परिश्येणं पयसा । ईसीपटमाराए णं बुडबीए बहुमज्जयेसभाए अट्ठजोपणिए से अजोवाई वाहणं पग्यता, ततो अनंतरं च गं मायाए मायाए पएसपरिहाणीए परिहायमाणी परिहायमाथी सम्येसु परिमं मयि पत्ताओ तनुयवरी अंगुलस्त असं बाह पण्णत्ता । ईसिपमाराए में बुडवीए बालसनामापता तं जहा " १. ईसी इ वा, २. ईसीप भारा इ वा, ३. तणू इ वा, ४. तणतणू इवा, ५. सिद्धी इ वा ६. सिद्धालए इया, ७. मुली हवा, ८. मुसालए बा १. लोयो इवा, १०. लोयग्गाथुभिया इ वा ११. लोयग्ग पण या १२ सय पान मृत जीव सत्तसुहा वहा इ वा । ईसोपारा पुढची सेया संदलवल-सोत्थियमुणाल- दगरय-तुसार- गोक्खीर- हारवण्णा, उत्ताणयच्छत्त संठाणसंठिया सब्वज्जुणसुवण्णमयी अच्छा- जाव पडवा | ईसोपारा पं सोयाए जो सोतो तस्स णं जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छन्भागे एत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादीया अपज्जवसिया अणेग जाइ-मरण जोगि संसार कसं की भाव-पुणमय-गमवासवसही पवंचसमतिक्कता सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति । - पण्ण. प. २, सु. २११ १ सम. १२, सु. ६-१० । सिद्ध स्थान ७८. प्र० - भगवन् ! सिद्धों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प्र० - भगवन् ! सिद्ध कहाँ रहते हैं ? उ०- गौतम | सर्वार्थसिद्ध महाविमान की ऊपर की स्टूपिका से बारह योजन ऊपर अन्तर रहित ईषत् प्राग्भारा नामक पृथ्वी कही गई है । पैंतालीस लाख योजन लम्बी चौड़ी और एक क्रोड बियालीस लाख, तीस हजार दो सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक परिधि कही गई है। सूत्र ७८ ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी के मध्य भाग में आठ योजन का क्षेत्र बाठ योजन मोटा कहा गया है, उसके बाद एक-एक प्रदेश हीन करते-करते सभी अन्तिम भागों में माखीकी पांखों से भी अत्यधिक पतली अंगुल के असंख्यात भाग जितनी मोटी कही गई है। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह नाम कहे गये हैं, यथा (१) ईषत्, (२) ईषत् प्राग्भारा, (३) तन्वी, (४) तनुतन्वी, ( ५ ) सिद्धि, (६) सिद्धालय, (७) मुक्ति, (८) मुक्तालय, (१) लोकाया (१०) लोकाग्रस्तूपिका, (११) लोकाय प्रतिबोधनी, (१२) सर्वप्राणभूत जीव-सत्व सुखावहा । = ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी विमल दल, स्वस्तिक, मृणाल, दकरज जल के झाग, तुषार = हिमकण, गोक्षीर = गाय का दूध, हार जैसी श्वेत वर्णं वाली है । खुले हुए छत्र जैसे आकार वाली, अर्जुन स्वर्णमयी स्वच्छ यावत् प्रतिरूप है। २ उववाई सु० ४३ । - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी से लोकान्त एक योजन ऊपर है । उस योजन के ऊपर के गाउ के छठे भाग में सादि अपर्य वसित, जन्म-मरण, योनि संसार के क्लेश, पुनर्जन्म और गर्भवास वसति के प्रपंचों से रहित सिद्ध भगवन्त शाश्वत भविष्यकाल पर्यन्त स्थित है। ॥ ऊर्ध्वलोक वर्णन समाप्त ॥
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy