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________________ २३८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : मंदर पर्वत : भद्रशालवन सूत्र ३७२-३७४ -उ०-गोयमा ! चत्तारि वणा पण्णत्ता, तं जहा- उ०-गौतम ! चार वन कहे गये हैं, यथा*. १ भद्दसालवणे, २ गंदणवणे, ३ सोमणसवणे, (१) भद्रशाल बन, (२) नन्दन वन, (३) सोमनाथ वन, (४) ४ पंडगवणे।' -जंबु० वक्ख० ४, सु० १०३ और पंडक वन । भद्दसालवणस्स पमाणं भद्रशाल वन का प्रमाण३७३. ५०-कहि णं भंते ! मंदरे पव्वए भद्दसालवणे णामं वणे ३७३. प्र०-भगवन् ! मेरु पर्वत पर भद्रशालवन नामक वन पण्णते? कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! धरणिअले एत्थ णं मंदरे पवए भद्दसालवणे उ०-गौतम ! मेरु पर्वत के पृथ्वी तल पर भद्रशाल वन . णामं वणे पण्णत्ते। ____ कहा गया है। पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिणवित्थिन्ने, सोमणस- यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है विज्जुप्पह-गंधमायाण-मालवंतेहि वक्खारपव्वएहिं तथा सौमनस, विद्युत्प्रभ, गंधमादन और माल्यवन्त नामक वक्षसीआ-सीओआहि अ महाणईहिं अट्ठभागपविभत्ते । स्कार पर्वतों और सीता तथा सीतोदा महानदियों के कारण यह आठ भागों में विभक्त हो गया है। मंदरस्स पब्वयस्स पुरथिम-पच्चत्थिमेणं बावीसं यह मेरु पर्वत से पूर्व-पश्चिम की ओर बावीस-बावीस बावीसं जोअणसहस्साई आयामेणं, उत्तर-दाहिणेणं हजार योजन लम्बा है और उत्तर-दक्षिण में ढाइ सौ ढाइ सौ अड्ढाइज्जाई अड्ढाइज्जाई जोअणसयाई विक्खंभेणंति। यौजन चौड़ा है। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ यह चारों ओर से एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से समंता संपरिक्खित्ते । दुण्हवि वण्णओ भाणिअन्वो। घिरा हुआ है। यहाँ इन दोनों का वर्णन कहना चाहिए। यह । किण्हे किण्होभासे-जाव-देवा आसयंति सयंति। (भद्रशाल-वन) कृष्ण व कृष्णावभास है-यावत्-यहाँ देव -जंबु० वक्ख०४, सु० १०३ (क्रीड़ा करते हैं एवं) बैठते सोते हैं। भद्दसालवणे सिद्धाययणस्स पमाणं भद्रशाल वन के सिद्धायतन का प्रमाण३७४. मदरस्स णं पव्वयस्स पुरथिमेणं भद्दसालवणं पण्णासं २७४. मेरु पर्वत से पूर्व की ओर भद्रशाल वन को पचास योजन जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते, अतिक्रमण करने पर एक विशाल सिद्धायतन कहा गया है। यह पण्णासं जोअणाई आयामेणं, पणवीसं जायणाई विक्खंभेणं, पचास योजन लम्बा, पच्चीस योजन चौड़ा, छत्तीस योजन ऊँचा छत्तीसं जोयणाई उड्ढे उच्चतेणं, अणेगखंभसयसण्णिविट्ठ और कई सौ स्तम्भों से सन्निविष्ट है। इसका वर्णन कहना वण्णओ। चाहिए। तस्स णं सिद्धाययणस्स तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता, ते णं इस सिद्धायतन के तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं । दारा अट्ट जोअणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोअणाई ये द्वार आठ योजन ऊँचे, चार योजन चौड़े एवं उतने ही प्रवेश विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेया वरकणगथूभिआगा वाले हैं । ये श्वेत वर्ण तथा श्रेष्ठ स्वर्ष की स्तूपिकाओं वाले हैं-जाव-वणमालाओ, भूमिभागो य भाणिअन्वो। ___यावत्-वनमालाएँ हैं । यहाँ की भूमि का भी वर्णन कर लेना चाहिए। तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिया इस (सिद्धायतन) के मध्यभाग में एक विशाल मणिपीठिका पण्णत्ता, अट्ठजोअणाई आयाम-विक्खंभेणं, चत्तारिजोअणाई कही गई है। यह आठ योजन लम्बी-चौड़ी, चार योजन मोटी, गाहल्लेणं. सश्वरयणामई, अच्छा-जाव-पडिरूवा। सर्वरत्नमय व स्वच्छ है यावत्-प्रतिरूप है। तोसे णं मणिपेढिआए उरि देवच्छंदए, अट्ठ जोयणाई इस मणिपीठिका पर एक देवच्छन्द है। यह आठ योजन आयाम-विक्खंभेणं, साइरेगाई अट्ठ जोयणाई उड्ढं उच्चतेणं, लम्बा-चौड़ा, सातिरेक आठ योजन ऊँचा-यावत्-जिनप्रतिमा -जाव-जिणपडिमाणवण्णओ। देवच्छंदगस्स-जाव-धूवकडुच्छ- से युक्त है । देवच्छंदक से लगाकर.धूपकड़च्छुक (धूपदानी) पर्यन्त आणं इति । (समस्त वर्णन पूर्ववत्) कर लेना चाहिए। १ ठाणं ४, उ० २, सु० ३०२ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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