SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र ३७४-३७६ तिर्यक् लोक : मंदर पर्वत : नन्दनवन गणितानयोग २३९ मदरस्स णं पव्वयस्स दाहिणणं भद्दसालवणं पण्णासं जोय- मेरु पर्वत से दक्षिण की ओर भद्रशाल वन को पचास योजन णाई ओगाहित्ता एत्थ णं एग महं सिद्धाययणं पण्णत्ते। एवं अतिक्रमण करने पर एक विशाल सिद्धायतन कहा गया है । इस चउदिसि पि मंदरस्स भहसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा प्रकार मेरु को चारों दिशाओं में भद्रशाल वन में चार सिद्धायतन भाणिअव्वा। -जंबु० वक्ख० ४, सु० १०३ कहने चाहिए। णंदणवणस्स पमाणं नन्दनवन का प्रमाण३७५. ५०–कहि णं भंते ! मंदरे पव्वए गंदणवणे णामं वणे ३७५. प्र०-भगवन् ! मेरु पर्वत पर नन्दनवन नामक वन कहाँ पण्णते? कहा गया है? उ०-गोयमा ! भद्दसालवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमि- उ०-गौतम ! भद्रशाल वन के अतिसम और रमणीय भागाओ पंचजोयणसयाई उड्ढं उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे भूमिभाग से पांच सौ योजन ऊँचा जाने पर मेरु पर्वत पर नन्दनपव्वए गंदणवणे णाम वणे पण्णत्ते । वन नामक वन कहा गया है। पंचजोयणसयाई चक्कवालविक्खंभेणं बट्ट वलयाकार यह पाँच सौ योजन चक्राकार विस्तारवाला, बल, संठाणसंठिए, जे णं मंदरं पव्वयं सव्वओ समंता वलयाकार, संस्थान वाला एवं मेरु पर्वत को सभी ओर से घेरे संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइत्ति । णव जोयणसहस्साई णव य चउप्पण्णे जोअणसए छच्चे- बाहर का गिरिविष्कंभ (मेरु पर्वत की चौड़ाई)गारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिविवखंभो। ६६५४ ६ योजन है। बाहर की गिरिपरिधि ३१४७६ योजन से किचित् अधिक है। एगत्तीसं जोयणसहस्साइं चत्तारि अ अउणासीए जोअणसए किचि विसेसाहिए बाहिं गिरिपरिरएणं । अट्ठजोअणसहस्साई णव य चउप्पण्णे जोअणसए छच्चेगारसभाए अंतो गिरिविक्खंभो। अन्दर का गिरिविष्कंभ ८६५४, योजन है। अट्ठावीसं जोअणसहस्साई तिण्णि य सोलसुत्तरे जोअणसए अट्ठ य इक्कारसभाए जोअणस्स अंतो गिरि- अन्दर की गिरिपरिधि २८३१६, योजन है । परिरएणं । से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ यह (नन्दन वन) चारों ओर से एक पद्मवरवेदिका और एक समंता संपरिक्खित्ते वण्णओ-जाव-देवा आसयंति। वनखण्ड से घिरा हुआ है । यहाँ इनका वर्णन समझ लेना चाहिए -यावत्-यहाँ देव बैठते हैं। मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं महं एगे मेरु पर्वत के पूर्व में एक विशाल सिद्धायतन कहा गया है. सिद्धाययणे पण्णत्ते । एवं चउद्दिसि चत्तारि सिद्धाययणा इसी प्रकार चारों दिशाओं में चार सिद्धायतन हैं । विदिशाओं में विदिसासु पुक्खरिणीओ, तं चेव पमाणं सिद्धाययणाणं पुष्करणियाँ हैं । सिद्धायतनों, पुष्करिणियों एवं शक्र-ईशान के पुक्खरिणीणं च । पासायडिसगा तह चेव सक्के- प्रासादावतंसकों का प्रमाण पूर्ववत् ही हैं। साणाणं, तेणं चेव पमाणेणं । -जंबु० वक्ख०४, सु०१०४ सोमणसवणस्स पमाणं सौमनस वन का प्रमाण३७६.५०–कहि णं भंते ! मंदरे पव्वए सोमणसवणे णामं वणे ३७६. प्र०-भगवन् ! मेरु पर्वत पर सौमनसवन नामक वन कहाँ पण्णत्ते ? कहा गया है ? उ०-गोयमा! णंदणवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उ०-गौतम ! नन्दनवन के अतिसम एवं रमणीय भूमिभाग अद्धतेवदि जोयणसहस्साइं उढं उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे से बांसठ हजार पाँच सौ योजन ऊपर जाने पर मेरु पर्वत पर पव्वए सोमणसवणे णाम वणे पण्णत्ते । सौमनस वन नामक वन कहा गया है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy