SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० लोक-प्रशप्ति तिर्व लोक मंदर पर्यंत पंडवन पंचजोयणसयाई चक्कवालविवखंभेणं वट्ट े वलयागारसंठासंठिए के मंदर पम्यं सब समता संपरि वित्ताणं चिट्ठ | चत्तारि जोयणसहस्साइं दुण्णि य बावत्तरे जोअणसए अट्ठ य इक्कारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिविक्वं भेणं । तेरस जोगसहस्साई पंच व एक्कारे जोणसए इस्कारसभाए जोरस वाहि गिरिपरिरएवं तिष्णि जोअणसहस्सा णि अ बाबत्तरे जोअणसए अट्ठ य इक्कारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविवखंभेणं । इस जोअणसहरसाई तिथि व अन्याय जोए तिण्णि अ इक्कारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिपरिरएणंति । से गं एमए पमवरवेइयाए एव वणसंडे स समता संपरिक्खित्ते । वण्णओ किण्हे किण्होभासे - जावदेवा आसयंति । एवं कूडवज्जा सच्चेव णंदणवणवत्तव्वया भणियव्वा । तं चेव ओगाहिऊण-जाव- पासायवडेंसगा सक्की सामाति - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०५ पंडगवणस्स पमाणं३७७, ५० - कहि णं भंते! मंदरपन्नए पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते ? उ०- गोवमा ! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिकाओ भूमि ---- भगाओ छत्तीसं जो अणसहस्साई उड्ढं उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे पव्वए सिहरतेले पंडगवणे गामं वणे पण्णत्ते । चत्तारि चउणउए जोयणसए चक्कवालविक्ख भेणं, वट्ट वलयाकार संठाणसंठिए जेणं मंदरचूलिनं सच्चओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ । तिष्णि जोअण सहस्साइं एगं च बाब जोण सर्व किचिविसेसाहिलं परिवजे वेगं से णं एगाए पउमबरपाए एगंग व वणसं - जाव किण्हे, देवा आसयंति । 1 - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०६ ३७८. मंदरचूलियाए णं पुरात्थिमेणं पंडगवणं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते । यह पाँच सौ योजन चक्राकार चौड़ा, बर्तुल वलयाकार एवं मेरु पर्वत को चारों ओर से घेरे हुये है ? इसके बाहर का गिरि- विष्कंभ ४२७२ - योजन है । योजन है। ११ सूत्र ३७५-३७८ बाह्य गिरि-परिधि १३५११ अन्दर का गिरि - विष्कंभ ३२७२ योजन है । ११ ३ अन्दर की गिरि-परिधि १०३४६ योजन है । ११ (सौमनस वन ) सब ओर से एक परवेदिका और एक वनखण्ड से घिरा हुआ है । यहाँ उनका वर्णन समझ लेना चाहिए । यह कृष्ण और कृष्णावभास है- यावत्-यहाँ देव (क्रीड़ा करते है और बैठते हैं। इस प्रकार कूटों को छोड़कर शेष वर्णन नन्दनवन के समान कर लेना चाहिए। उतनी ही दूरी पर - यावत् - शक्र और ईशानेन्द्र के प्रासादावतंसक है । पंडक वन का प्रमाण ३७७. प्र० - भगवन् ! मेरु पर्वत पर पंडकवन नामक वन कहाँ कहा गया है ? उ०- गौतम ! सौमनस वन के अति सम एवं रमणीय भूमिभाग से छत्तीस हजार योजन ऊपर जाने पर मेरु पर्वत पर शिखरतल पर पंडक वन नामक वन कहा गया है । यह चार सौ चोरानवें योजन चक्राकार चोड़ा, वर्तुल, वलयाकार एवं मेहबूलिका को सभी ओर से घेरे हुए स्थित हैं। इसकी परिधि इकतीस सौ बासठ योजन से कुछ अधिक है । यह पद्मवश्वेदिका और एक वनखण्ड से ( सब ओर से घिरा है)कृष्ण हैं। देव यहाँ बैठते हैं। ३७८. मंदरचूलिका के पूर्व में पण्डगवन में पचास योजन प्रवेश करने पर एक महान् भवन कहा गया है ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy