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लोक-प्रशप्ति
तिर्व लोक मंदर पर्यंत पंडवन
पंचजोयणसयाई चक्कवालविवखंभेणं वट्ट े वलयागारसंठासंठिए के मंदर पम्यं सब समता संपरि वित्ताणं चिट्ठ |
चत्तारि जोयणसहस्साइं दुण्णि य बावत्तरे जोअणसए अट्ठ य इक्कारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिविक्वं भेणं ।
तेरस जोगसहस्साई पंच व एक्कारे जोणसए इस्कारसभाए जोरस वाहि गिरिपरिरएवं
तिष्णि जोअणसहस्सा णि अ बाबत्तरे जोअणसए अट्ठ य इक्कारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविवखंभेणं ।
इस जोअणसहरसाई तिथि व अन्याय जोए तिण्णि अ इक्कारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिपरिरएणंति ।
से गं एमए पमवरवेइयाए एव वणसंडे स समता संपरिक्खित्ते । वण्णओ किण्हे किण्होभासे - जावदेवा आसयंति ।
एवं कूडवज्जा सच्चेव णंदणवणवत्तव्वया भणियव्वा । तं चेव ओगाहिऊण-जाव- पासायवडेंसगा सक्की सामाति - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०५
पंडगवणस्स पमाणं३७७, ५० - कहि णं भंते! मंदरपन्नए पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते ?
उ०- गोवमा ! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिकाओ भूमि
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भगाओ छत्तीसं जो अणसहस्साई उड्ढं उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे पव्वए सिहरतेले पंडगवणे गामं वणे पण्णत्ते । चत्तारि चउणउए जोयणसए चक्कवालविक्ख भेणं, वट्ट वलयाकार संठाणसंठिए जेणं मंदरचूलिनं सच्चओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ । तिष्णि जोअण सहस्साइं एगं च बाब जोण सर्व किचिविसेसाहिलं परिवजे वेगं से णं एगाए पउमबरपाए एगंग व वणसं - जाव किण्हे, देवा आसयंति ।
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- जंबु० वक्ख० ४, सु० १०६
३७८. मंदरचूलियाए णं पुरात्थिमेणं पंडगवणं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते ।
यह पाँच सौ योजन चक्राकार चौड़ा, बर्तुल वलयाकार एवं मेरु पर्वत को चारों ओर से घेरे हुये है ?
इसके बाहर का गिरि- विष्कंभ ४२७२ - योजन है ।
योजन है। ११
सूत्र ३७५-३७८
बाह्य गिरि-परिधि १३५११
अन्दर का गिरि - विष्कंभ ३२७२
योजन है । ११
३ अन्दर की गिरि-परिधि १०३४६ योजन है । ११
(सौमनस वन ) सब ओर से एक परवेदिका और एक वनखण्ड से घिरा हुआ है । यहाँ उनका वर्णन समझ लेना चाहिए । यह कृष्ण और कृष्णावभास है- यावत्-यहाँ देव (क्रीड़ा करते है और बैठते हैं।
इस प्रकार कूटों को छोड़कर शेष वर्णन नन्दनवन के समान कर लेना चाहिए। उतनी ही दूरी पर - यावत् - शक्र और ईशानेन्द्र के प्रासादावतंसक है ।
पंडक वन का प्रमाण
३७७. प्र० - भगवन् ! मेरु पर्वत पर पंडकवन नामक वन कहाँ कहा गया है ?
उ०- गौतम ! सौमनस वन के अति सम एवं रमणीय भूमिभाग से छत्तीस हजार योजन ऊपर जाने पर मेरु पर्वत पर शिखरतल पर पंडक वन नामक वन कहा गया है ।
यह चार सौ चोरानवें योजन चक्राकार चोड़ा, वर्तुल, वलयाकार एवं मेहबूलिका को सभी ओर से घेरे हुए स्थित हैं। इसकी परिधि इकतीस सौ बासठ योजन से कुछ अधिक है । यह पद्मवश्वेदिका और एक वनखण्ड से ( सब ओर से घिरा है)कृष्ण हैं। देव यहाँ बैठते हैं।
३७८. मंदरचूलिका के पूर्व में पण्डगवन में पचास योजन प्रवेश करने पर एक महान् भवन कहा गया है ।