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________________ ४२६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन सूत्र ६१८-६२३ ३. महाकच्छा, ४. फुडा। एवं महाकायस्स वि। (४) स्फुटा । इसी प्रकार महाकाय महोरगेन्द्र की चार अग्न महिषियों के नाम हैं। गीयरइस्स गं गंधव्विंदस्स गंधवरणो चत्तारि अग्गमहि- गीतरस गंधर्वराज गंधर्वेन्द्र की चार अग्रमहिषियों कही गई सीओ पण्णताओ, तं जहा-१. सुघोसा, २. विमला, ३. है, यथा-(१) सुघोषा, (२) विमला, (३) सुस्वरा, (४) सरसुस्सरा, ४. सरस्सई । एवं गीयजसस्स वि। स्वती । इसी प्रकार गीतयश महोरगेन्द्र की चार अग्रमहिषियों के -ठाणं ४, उ० १, सु० २७३ नाम हैं। वाणमंतर-नगराणं संखा सरूवं च वाणव्यन्तरों के नगरों की संख्या और स्वरूप११९. ५०–केवतिया णं भंते ! वाणमंतर भोमेज्जनगरावाससय- ६१६. प्र०-है भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के कितने लाख भौमेय सहस्सा पन्नत्ता ? नगरावास कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतर भोमेज्जनगरावाससय- उ०-हे गौतम ! वाणव्यन्तरदेवों के असंख्य लाख भौमेय सहस्सा पन्नत्ता। नगरावास कहे गये हैं। प०-ते गं भंते ! किमया पन्नत्ता? प्र०-हे भगवन् ! वे भौमेयनगरावास किन पदार्थों के बने उ०-गोयमा ! सव्वरयणामया अच्छा सहा-जाव-पडिरूवा। उ०-हे गौतम ! वे सब रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण हैं तत्थ णं बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमति विउक्क- यावत -नित्य नये दिखाई देने वाले हैं। उनमें अनेक जीव मंति चयंति उववज्जति । उत्पन्न होते हैं, मरते हैं, तथा अनेक पुद्गल मिलते हैं और बिखरते हैं। सासया गं ते भवणा दवट्ठयाए, वण्णपज्जवेहि-जाव- द्रव्यों की अपेक्षा से वे भवन शास्वत हैं, और वर्ण पर्यायों फासपज्जवेहि असासया । एवं-जाव-गीयजस-भोमेज्ज- -यावत -स्पर्श पर्यायों की अपेक्षा से अशास्वत हैं-यावत नगरावासा। -भग. स. १६, उ. ७, सु. ४-५ गोतयश इन्द्र के भौमेयनगरावास हैं । असंखेज्जा वाणमंतरावासा तेसि वित्थरं च- असंख्य वाणव्यन्तरावास और उनका विस्तार१२०. प०-केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता? ६२०. हे भंते ! वाणव्यन्तरावास कितने लाख कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता। उ०-हे गौतम ! वाणव्यन्त रावास असंख्य लाख कहे गये हैं। 40_ते ते! कि संखेज्ज वित्थडा असंखेज्जवित्थडा? प्र०-हे भंते ! वे संख्येय योजन विस्तार वाले हैं या असंख्येय योजन विस्तार वाले हैं ? उ०-गोयमा ! संखेज्ज वित्थडा, नो असंखेज्जवित्थडा। उ०-हे गौतम ! संख्येय योजन विस्तार वाले हैं. असंख्येय -भग. स. १३, उ. २, सु. ७-८ योजन विस्तार वाले नहीं हैं । सभाए सुहम्माए उच्चत्तं सुधर्मा सभा की ऊँचाई९२१. वाणमंतराणं देवाणं सभाओ सुहम्माओ नव जोयणाई उड्ढे ६२१. वाणव्यन्तर देवों की सुधर्मा सभाएँ नौ योजन ऊँची कही उच्चत्तेणं पण्णत्ता। -सम. ६, सु. १० गई है। अंजण कंडाओ भोमेज्जविहाराणं अन्तरं-- अंजण काण्ड से भौमेयविहारों का अन्तर१२२. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए, अंजणस्स कंडस्स हेट्ठिल्लाओ ६२२. इस रत्नप्रभापृथ्वी के अंजन काण्ड के ऊपर के अन्तिम भाग चरिमंताओ वाणमंतर-भोमेज्जविहाराणं उबरिमते, एस णं से वाणव्यंतरों के भौमेय-विहारों के ऊपर के अन्तिम भाग का नवनउइ जोयणसयाई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । व्यवधानात्मक अन्तर निन्यानवें सौ ६६०० योजन का कहा -सम. ६६, सु. ७ गया है। वाणमंतराणं परिसाणं देव-देवीणं संखा वाणव्यन्तरों की परिषदों के देव-देवियों की संख्या६२३. ५०-कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमार- ६२३. प्र०-हे भंते ! पिशाचमारेन्द्र पिशाचराज की कितनी रणो कइ परिसाओ पप्णत्ताओ? परिषदाएं कही गई है ?
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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