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________________ सूत्र ६२३-६२४ तिर्यक् लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन गणितानुयोग ४२७ उ०-गोयमा ! तिग्णि परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- उ.-हे गौतम ! तीन परिषदाएँ कही गई हैं, यथा१. ईसा, २. तुडिया, ३. दढरहा, (१) ईसा, (२) त्रुटिता, (३) दृढ़रथा, १. अभितरिया ईसा, (१) आभ्यन्तर परिषद ईसा, २. मज्झिमिया तुडिया, (२) मध्य परिषद् त्रुटिता, ३. बाहिरिया दढरहा,' (३) बाह्य परिषद् दृढ़रथा, १०-कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमार- प्र०-हे भंते ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज काल की रण्णो अभितरियाए, मज्झिमियाए, बाहिरियाए परि- आभ्यन्तर, मध्यमिका और बाह्य परिषद् के कितने हजार देव कह साए कइ देवसाहस्सिओ पण्णत्ताओ? अभितरियाए, गये हैं ? तथा कितनी सौ देवियाँ कही गई हैं ? मज्झिमियाए, बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णता? उ.-गोयमा ! अभितरियाए परिसाए अट्ट देवसाहस्सिओ उ०-हे गौतम ! आभ्यन्तर परिषद् के आठ हजार देव पण्णत्ताओ, ___ कहे गये हैं ? मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सिओ पण्णत्ताओ, मध्यमिका परिषद् के दस हजार देव कहे गये है, बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सिओ पण्णत्ताओ, बाह्य परिषद् के बारह हजार देव कहे गये हैं। अभितरियाए परिसाए एगं देविसयं पण्णत्त, आभ्यन्तर, मध्यमिका और बाह्य परिषद् की एकेक सौ मज्झिमियाए परिसाए एग देविसयं पण्णत्तं, देवियाँ कही गई हैं बाहिरियाए परिसाए एगं देविसयं पण्णत्तं, एवं जहा पिसायाणं तहा भूयाण वि-जाव-गंधव्वाणं । पिशाचों की परिषदों के देव-देवियों की जितनी संख्या हैं उतनी ही भूतों की परिषदों के देव-देवियों की संख्या हैं-यावत् -जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. १२१ गंधवों को भी उतनी ही है। जंभयाणं देवाणं सरूवं भेया ठाणं य जम्भक देवों का स्वरूप भेद और स्थान३२४. ५०-अत्थि णं भंते ! जंभया देवा, जंभयादेवा ? ६२४. प्र०-हे भंते ! जुम्भकदेव ज़म्भकदेव हैं ? उ०-हंता, अत्थि। उ०—(गौतम !) हाँ है। प०–से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-"जभयादेवा, जंभयादेवा प्र०-हे भन्ते ! किस कारण ये 'जृम्भकदेव' जुम्भकदेव कहे जाते हैं ? उ०-गोयमा ! जंभगाणं देवा निच्च पमुदितपक्कीलिया उ.-गौतम ! ये जुम्भकदेव सदा प्रमुदित एवं क्रीडारत रहते कंदप्परतिमोहणसीला जे गं ते देवे पासेज्जा से णं हैं तथा काम-क्रीड़ा में मुग्ध रहते हैं । जो उन देवों को तुष्ट महंतं अयसं पाउणेज्जा, जे णं ते देवे तु8 पासेज्जा (प्रसन्न) देखता है वह महान् यश को प्राप्त होता है। जो उन से णं महतं जसं पाउणेज्जा। देवों को कुपित देखता है वह महान अयश को प्राप्त होता है। से तेण?णं गोयमा ! "जंभगादेवा, जंभगादेवा।" इसलिए गौतम ! वे जृम्भकदेव जृम्भकदेव कहे जाते हैं । प०-कतिविहाणं भंते ! जंभगादेवा पण्णता? । प्र०-हे भन्ते ! जम्भकदेव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! दसविहा पन्नत्ता, तं जहा-१. अन्नजंभगा, उ०-गौतम ! दस प्रकार के कहे गये हैं, यथा-(१) अन्न ३. वत्थजंभगा, ४. लेणजभगा, ५. सपणजभगा, जुम्भक, (२) पानजुम्भक, (३) वस्त्रजुम्भक, (४) लयनजम्भक, ६. पुप्फफलजंभगा, ह. विज्जाजभगा, १०. अवियत्ति- (६) पुष्पजृम्भक, (७) फलज़म्भक, (८) पुष्प-फलज़म्भक, जंभगा। (६) विद्याजृम्भक, (१०) अव्यक्तजृम्भक । १०- जंभगाणं भंते ! देवाणं कहि वसहि उति ? प्र०-हे भन्ते ! जृम्भकदेवों की वसति (स्थान) कहाँ पर है ? १ ठाणं ३, उ०२, सु० १५४ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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