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________________ ४२८ लोक-प्रज्ञप्ति ___तिर्यक् लोक : ज्योतिष्क-निरूपण सूत्र ६२४-६२६ उ०-सव्वेसु चेव दोहवेयड्ढेसु चित्तविचित्तजमगपव्वएसु उ०-(गौतम) सभी दीर्घ वैताढ्यों पर, चित्र-विचित्र यमक कंचणपव्वएसु य एत्थ णं जंभगादेवा वसहि उति,' पर्वतों पर, कंचनपर्वतों पर-जम्भकदेवों की वसति प्राप्त -भग. स. १४, उ. ८, सु. २५, २६, २७ होती है । जोइसिय-निरुवणं ज्योतिष्क-निरूपण जोइसियाणं संखाणं सव्वण्णूपदिट्ट ज्योतिष्कों का गणित सर्वज्ञ कथित है६२५. गाहा ६२५. गाथार्थरवि-ससि-गह-णक्खत्ता, एवइया आहिया मणुयलोए। सूर्य-चंद्र-ग्रह-नक्षत्र मनुष्य लोक में इतने कहे गये हैं, जिनके जेसि नामागोयं, न पागया पन्नवेहिति ॥ नाम गोत्रादि सामान्य व्यक्ति नहीं कह सकते हैं, अर्थात् सर्वज्ञ ही -जीवा०प० ३, उ० २, सु० १७७ कह सकते हैं। जोइसियाणं चारविसेसेणं मणस्साणं सुह-दुक्खं- ज्योतिष्कों की विशेष गति से मनुष्यों को सुख-दुख __ होता है६२६. गाहा ६२६. गाथार्थरयणियर-दिणयराणं, नक्खत्ताणं महग्गहाणं च । चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र और ग्रहों की विशेष गति से मनुष्यों को चारविसेसेण भवे, सुह-दुक्खविही मणुस्साणं ॥ सुख-दुःख प्राप्त होता है। -जीवा०प० ३, उ० २, सु० १७७ १ (क) जम्भकदेवों की स्थिति द्रव्यानुयोग के स्थितिप्रज्ञप्ति विभाग में देखें । (ख) ये जृम्भकदेव व्यंतरदेव हैं-यह उनकी स्थिति और स्थान से निश्चित हो जाता है और वे दृश्य देव हैं-यह भी जुम्भक नाम से परिलक्षित हो जाता है किन्तु १६ प्रकार के व्यंतरों में ये किसके अन्तर्गत है ? व्यंतरों के ३२ इन्द्रों में से किस इन्द्र के अधीनस्थ है ? तथा शक्रेन्द्र के चार लोकपालों में से किस लोकपाल के अधीन है? ये सभी प्रश्न समाधान के की अपेक्षा रखते हैं। भग. श. ३, उ. ७ में वैश्रमणलोकपाल के अधीन वाणव्यंतरदेव माने गये हैं, पर वहाँ जम्भकदेवों का नाम निर्देश नहीं हैं। भग. श. ३, उ. ७ में यमलोकपाल के अपत्यस्थानीयदेवों में "कंदर्प" नामक देव हैं। यहाँ जम्भकदेवों का विशेषण "कंदपं" है-यदि इस विशेषण से जम्भकदेव यमलोकपाल के अधीनस्थ हो तो ठीक है । आगमज्ञों की परम्परागत धारणाओं के अनुसार स्पष्टीकरण आवश्यक है। २ (क) सूरिय० पा० १६, सु० १००, चंद० पा० १६, सु० १०० (ख) “रजनिकर-दिनकराणां” चन्द्रादित्यानां, नक्षत्राणां, महाग्रहाणां च “चार विशेषण" तेन तेन चारेण सुख-दुःखविधयो मनुष्याणां, संभवंति, तथाति-द्विविधानि संति सदा मनुष्याणां कर्माणि, तद्यथा-शुभवेद्यानि, अशुभवेद्यानि च, कर्मणां च सामान्यतो विपाकहेतवः पंचः तद्यथा-१. द्रव्यं, २. क्षेत्र, ३. कालो, ४. भावो, ५. भवश्च । उक्तं च, गाहाउदय-क्खय-खओवसमोवसमा, जं च कम्मुणो भणिया । दव्वं, खेत्तं, कालं, भावं, भवं च संपप्प ।।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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