SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन सूत्र ५६८-६०१ चउद्दसहि सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी आपूरेमाणी, चौदह हजार नदियों को अपने में मिलाती मिलातीसद्दावइवट्टवेयड्ढपम्वयं अद्धजोयणेणं असंपत्तासमाणी, शब्दापाती वृत्त वैताढ्य पर्वत से आधा योजन की दूरी पर, पच्चत्थाभिमुही आवत्तासमाणी हेमवयंवासं दहा विमय- पश्चिमाभिमुख होती हुई, हैमवतवर्ष को दो भागों में विभक्त. माणी विभयमाणी, करती करतीअट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता अठाईस हजार नदियों से परिपूर्ण (वह रोहितांशा नदी). पच्चत्थिमेणं लवणसमुद्द समप्पेइ। जगती के नीचे होती हुई पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती है। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ७४ सुवण्णकूलाए महाणईए लवणसमुद्दे समत्ति- सुवर्णकूला महानदी का लवणसमुद्र में मिलनारुप्पकूलाए महाणईए लवणसमुद्दे समत्ति- रूप्यकूला महानदी का लवणसमुद्र में मिलना हरिसलिला महाणईए लवणसमुद्दे समत्ति- हरिसलिला महानदी का लवणसमुद्र में मिलना५६६. ..."-जाव-अहे जगई दालइत्ता छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं ५६६. -यावत्-(हरिसलिला महानदी) छप्पन हजार नदियों समग्गा पुरथिमलवणसमुद्द समप्पेइ ।' सहित जगती के नीचे होकर पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८४ हरिकतामहाणईए लवणसमुद्दे समत्ति- हरिकान्ता महानदी का लवणसमुद्र में मिलना६००. तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकता- ६००. उस हरिकान्तप्रपातकुण्ड के उत्तरी तोरण से हरिकान्ता महाणई पवढा समाणी हरिवासं वासं एज्जेमाणी एज्जेमाणी, महानदी निकलकर हरिवर्ष क्षेत्र में बहती हुई, विअडावई वट्टवेयड्ढपव्वयं जोयणेणं असंपत्ता पच्चत्था- विकटापाती वृत्तवैताढ्यपर्वत से एक योजन दूर पश्चिमाभिभिमुही आवत्तासमाणी हरिवासं दुहा विभयमाणी विभयमाणी, मुख होकर हरिवर्षक्षेत्र को दो भागों में विभक्त करती हई, छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता और छप्पन हजार नदियों सहित जमती के नीचे होकर पच्चत्थिमेणं लवणसमुद्द समप्पेइ। पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती है। -जंबु० वक्ख० ४, सु०८० णरकंता महाणईए लवणसमुहे समत्ति नरकान्ता महानदी का लवणसमुद्र में मिलना६०१. जहा रोहिआ पुरथिमेणं गच्छइ। ६०१. रोहिता नदी के समान (नरकान्ता महानदी भी) पूर्वी -जंबु० बक्ख० ४, सु० १११ लवणसमुद्र में मिल जाती है । जम्बुद्धीपप्रज्ञप्ति वक्ष० ४, सूत्र ८४ में संक्षिप्त वाचना की सूचना इस प्रकार है-“एवं जा चेव हरिकताए वत्तव्वया सा चेव हरीए वि णेयब्बा" इस प्रकार जो हरिकंता (महानदी) का कथन है वही हरी (महानदी) का भी जानना चाहिए। ऊपर मूलपाठ आगमोदय समिति की प्रति से उद्धृत किया गया है-यह मूलपाठ अशुद्ध प्रतीत होता है। जम्बूद्वीप वक्ष०४, सु०८० में हरिकान्ता महानदी के मूल पाठ की रचना के अनुसार शुद्ध पाठ इस प्रकार होना चाहिए-"छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरत्थिमं लवणसमुदं समप्पेइ""" पूरित मूलपाठ"तस्स णं हरिसलिलप्पबायकुण्डस्स दाहिणणं हरिसलिला महाणई पबूढासमाणी हरिवास एज्जेमाणी एज्जेमाणी; गंधावइवट्टवेयड्ढपव्वयं दुहा विभयमाणी विभयमाणी; छप्पण्णाए सलिला-सहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरत्थिमं लवणसमुदं समप्पेइ । -जम्बु० वक्ख० ४, सु० ८४ २ जहा रोहियत्ति यथा-रोहिता 'पुरत्थिमेणं गच्छई' त्ति पूर्वेण गच्छति समुद्रमितिशेषः । –टीकाः
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy