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सूत्र ११३०-११३२
ऊर्ध्व लोक : आयाम-मध्य का प्ररूपण
गणितानुयोग
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जे अजीवा ते दुविहा पण्णता, तं जहा
जो अजीव है वे दो प्रकार के कहे गये हैं यथा१. रूवी अजीवा य, २. अरूबी अजीवा य ।
(१) रूपी अजीव, (२) अरूपी अजीव । रूबी तहेव--
रूपी पूर्ववत् कहें। जे अरूवी अजीवा ते चउन्विहा पण्णता, तं जहा- जो अरूपी अजीब हैं वे चार प्रकार के कहे गये हैं, यथानो धम्मत्थिकाए, १. धम्मत्थिकायस्स देसे, २. धम्म- धर्मास्तिकाय नहीं हैं, (१) धर्मास्तिकाय के देश हैं, थिकायस्स पदेसे।
(२) धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं । ३-४. अधम्मत्थिकायस्स वि।'
(३.४) इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के देश और प्रदेश हैं । -भग. ११, उ. १०, सु. १६ उडढलोगस्स आयाम-मज्झ परूवणं
ऊर्ध्वलोक के आयाम-मध्य का प्ररूपण५. ५०-कहि गं भंते ! उड्ढलोगस्स आयाम-मज्झे पण्णते? ५. प्र० -भगवन् ! ऊर्ध्वलोक के आयाम-मध्य (लम्बाई का
मध्य भाग) कहाँ गया है ? उ.-गोयमा ! उप्पि सणंकुमार-माहिदाणं । हेट्ठि बंभलोए 30-गौतम ! सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के ऊपर और
कप्पे रिट्र विमाणपत्थडे । एत्थ णं उड्ढलोगस्स नीचे ब्रह्मलोक कल्प में रिष्ट विमान के प्रस्तट में ऊर्ध्वलोक का आयाम-मझे पण्णत्ते ।
आयाम-मध्य कहा गया है। ---भग. स. १३, उ. ४, सु. १४ वेमाणिय देवाण ठाणाई
वैमानिक देवों के स्थान६.५०-कहि णं भंते ! वेमाणियाणं देवाणं पज्जताऽऽपज्जत्ताणं ६.प्र० -भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त वैमानिक देवों के ठाणा पण्णता?
स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प०-कहि णं भंते ? वेमाणिया देवा परिवसंति ?
प्र० --भगवन् ! वैमानिक देव कहाँ रहते हैं ? उ०—गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसम-रमणि- उ०-गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के सम भूमि भाग से
ज्जाओ भूमिभागाओ उड्ढं चंदिम-सूरिय-गह-गक्खत्त- ऊपर चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारा विमानों से अनेक सौ अनेक तारारूवाणं वहुई जोयणसयाई, बहूई जोयणसहस्साई हजार । अनेक लाख) अनेक क्रोड़ तथा अनेक क्रोडा-क्रोड योजन बहुगीओ जोयणकोडीओ, बहुगीओ जोयणकोडाकोडीओ दूर ऊपर सौधर्म-ईशान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लांतक-महाउड्ढं दूर उप्पइत्ता । एत्थ णं सोहम्मीसाण-सणंकुमार- शुक्र-सहस्रार-आनत-प्राणत-आरण-अच्युत-(कल्प) ग्रैवेयक और माहिद-बंभलोय-लंतगे महासुक्क-सहस्सार-आणय-पाणय. अनुत्तरो (कल्पातीतों) में वैमानिक देवों के चौरासी लाख, आरण-अच्चुय-गेवेज्ज-अणुत्तरेसु । एत्थ णं वेमाणियाणं सत्तानवे हजार तेवीस विमान हैं ऐसा कहा गया है । देवाणं चउरासीइ विमाणावास सयसहस्सा सत्ताणउई च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीतिमक्खायं ।' ते णं विमाण सम्वरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा, वे विमान सर्वरत्नमय है, स्वच्छ हैं-यावत्-मनहर हैं । तत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा इन विमानों में पर्याप्त और अपर्याप्त वैमानिक देवों के पण्णत्ता । तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइ भागे।' स्थान कहे गये हैं, उपपात समुद्घात और स्वस्थान इन तीन की
अपेक्षा से (ये स्थान) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। तत्थ णं बहवे बेमाणिया देवा परिवसंति, तं जहा---- उन विमानों में अनेक वैमानिक देव रहते हैं, यथासोहम्मीसाण सणंकुमार-माहिद-बंभलोग-लंतग-महासुक्क- सौधर्म-ईशान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लांतक-महाशुक्र
१ एवं उड्ढलोग खेत्तलोगस्स वि, नवरं--अद्धासमओ नत्थि, अरूवी वउव्विहा ।
-भग. स. ११, उ. १०, सु. १६ इस संक्षिप्त पाठ का विस्तृत पाठ ऊपर अंकित है । २ सम. स. ८४, सु. १७ ।
३ भवनपति देवों के समान हैं।