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________________ ४. लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र ८४-८६ उ० गोयमा ! दध्वट्ठयाए सासया । वष्ण-पज्जवेहि, गंध पज्जवेहि, रस-पज्जवेहि, फास पज्जवेहि असासया। से तेण?णं गोयमा ! एवं वृच्चइ-सिय सासया, सिय असासया। एवं जाव अहेसत्तमा। -जीवा० पडि० ३, उ०१, सु० ७८ । उ. हे गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से (रत्नप्रभा) शाश्वत है। वर्ण-पर्याय, गन्ध-पर्याय, रस-पर्याय और स्पर्श-पर्यायों की अपेक्षा से अशाश्वत है। हे गौतम ! इसलिए कहा जाता है कि (रत्नप्रभापृथ्वी) कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है । इसी प्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त है। होइ? ८५: प० इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी कालतो केवच्चिरं । ८५ :प्र. हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी काल की अपेक्षा से कितने समय पर्यन्त रहने वाली है ? उ० गोयमा ! न कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण उ० हे गौतम ! यह (रत्नप्रभापृथ्वी) कभी नहीं थी कयाइ ण भविस्सइ । भुवि च, भवइ य, भविस्सति ऐसा नहीं है। कभी नहीं है-ऐसा भी नहीं है। कभी नहीं य। धुवा, णियया सासया अक्खया अव्वया अवट्ठिया होगी-ऐसा भी नहीं है । यह थी, है और रहेगी। यह ध्रव है, णिच्चा। नियत है, शास्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। एवं जाव अहेसत्तमा। इसी प्रकार यावत् नीचे सप्तमपृथ्वी पर्यन्त है। -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७८ । फुसति ? रयणप्पभाईणं धम्मत्थिकायाइणा फुसणा रत्नप्रभादि का धर्मास्तिकायादि से स्पर्श८६:५० इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी धम्मत्थिकायस्स किं ८६ :प्र. हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी क्या धर्मास्तिकाय के संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति ? संख्येयभाग को स्पर्श करती है ? असंख्येयभाग को स्पर्श करती संखेज्जे भागे फुसति ? असंखेज्जे भागे फुसति ? सव्वं है ? संख्येयभागों को स्पर्श करती है ? असंख्येयभागों को स्पर्श करती है ? सम्पूर्ण (धर्मास्तिकाय का) स्पर्श करती है ? उ० गोयमा ! णो संखेज्जइभागं फुसति, असंखेज्जइमागं उ. हे गौतम ! यह (रत्नप्रभापृथ्वी धर्मास्तिकाय के) फुसति, णो संखेज्जे भागे फुसति, णो असंखेज्जे भागे संख्येयभाग को स्पर्श नहीं करती है किन्तु असंख्येयभाग को फुसति, नो सव्वं फुसति । स्पर्श करती है । संख्येयभागों को असंख्येयभागों को और सम्पूर्ण (धर्मास्तिकाय) का स्पर्श नहीं करती है। प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदही धम्म- प्र. हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी की घनोदधि धर्मास्तित्थिकायस्स कि संखेज्जइ भागं फुसति ? जाव सव्वं काय के संख्येयभाग को स्पर्श करती है ? यावत् सम्पूर्ण (धर्मा स्तिकाय) को स्पर्श करती है ? उ० जहा रयणप्पभा तहा घणोदहि-घणवात-तणवाया उ० जिसप्रकार रत्नप्रभा के सम्बन्ध में कहा है उसी वि। प्रकार घनोदधि, घनवात और तनुवात के सम्बन्ध में भी (कहना चाहिए)। प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए ओवासंतरे धम्म- प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का अवकाशान्तर क्या थिकायस्स कि संखेज्जइभागं फुसइ? किं असंखेज्जइ धर्मास्तिकाय के संख्येयभाग को स्पर्श करता है ? असंख्येयभाग भागं फुसइ? जाव सत्वं फुसइ? को स्पर्श करता है। यावत् सम्पूर्ण (धर्मास्तिकाय) का स्पर्श करता है ? उ० गोयमा? संखेज्जइभाग फुसइ, णो असंखेज्जइभागं उ. हे गौतम ! संख्येयभाग का स्पर्श करता है किन्तु फुसइ, नो सखेज्जे भागे फुसइ, नो असंखेज्जे भागे असंख्येयभाग को, संख्येयभागों को असंख्येयभागों को और सम्पूर्ण फुसइ, नो सव्वं फुसइ। (धर्मास्तिकाय) का स्पर्श नहीं करता है। फुसति ?
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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