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सूत्र ८१४-८१६
तिर्यक् लोक : क्षीरोद समुद्र वर्णन
सहेब समचक्कवालठाणसंहिए विश्वंभ-परियोजाई जाई
दारा, दारंतरं, पउमवरवेइया, वणसंडो, पदेसा, जीवा य तहेव । - जीवा. पडि, ३ . २ सु. १८१
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वह उसी प्रकार समचक्राकार संस्थान से स्थित है । उसका विष्कम्भ और परिधि संख्यात लाख योजन के हैं । क्षीरोदसमुद्र के द्वार, द्वारों के अन्तर पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, द्वीप और समुद्र के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श, द्वीप और समुद्र के जीवों की एक दूसरे में उत्पत्ति, पूर्ववत है।
खीरोदसमुद्रस्स नामहेऊ
क्षीरोदसमुद्र के नाम का हेतु
८१५ १० सेकेण णं ते! एवं बुम्बद खीरोदसमुद्दे ८१५. भगवन्! क्षीरोदसमुद्र को क्षीरोदसमुद्र ही क्यों कहा
खीरोदसमुद्द" ?
जाता है ?
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उ०- गोयमा ! खीरोयस्स णं समुद्दस्स उदगं से जहाणामए रणो चाउरंतयट्टिस्स उबविते डगुडमच्छडो वणी पदग्ठिले बम्गेणं उपयते वाय-फासेणं बाजे दिसायनिक पोणि-जाव सचिदिवगातपाणि भये एवं सिया ? गोमा ! णो इण समट्ठ े ।
खीरोदसणं से उब एतो दुतराए चंब आसाएगं पण्णत्ते ।"
विमल विमलापमा एत्थ दो देवा महिड्ढीया - जावपमिट्टिया परिवर्तति
से तेणटुणं गोयमा ! एवं बुच्चइ खीरोदसमुद्द े, खीरोदसमुद्दे जीवा परि० ३ उ. २, सु. १०१ खीरोदसमुदरस निच
८१६. अदुत्तरं च णं गोयमा ! खीरोदसमुद्द सासए - जाव- णिच्चे । - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८१
गणित योग
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उ०—जैसे खांड, गुड़ या मिश्री युक्त जल जो मंदाग्नि से पक्व हो, चारों दिशाओं के स्वामी चक्रवर्ती राजा के पीने योग्य आस्वादतीय, विशेष आस्वादनीय पुष्टिकर यावत् सभी इन्द्रियों और शरीर को आनन्ददायी वर्णयुक्त यावत स्वतंयुक्त जन है, गौतम ! क्षीरोद समुद्र का जल गया ऐसा है ?
गौतम ! यह अर्थ - अभिप्राय समर्थ -संगत नहीं है ।
क्षीरोदसमुद्र का जल इससे भी इष्टतर है- यावत स्वाद से मनोहर कहा गया है।
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विमल और विमलप्रभ-ये दो महधिक - यावत - पल्योपम स्थिति वाले देव वहाँ रहते हैं ।
गौतम ! इस कारण से क्षीरोदसमुद्र क्षीरोदसमुद्र कहा जाता है ।
क्षीरोदसमुद्र की नित्यता
८१६. अथवा — गौतम ! क्षीरोदसमुद्र यह नाम शास्वत हैयावत - नित्य है ।
१ गोयमा ! खीरोयस्स णं समुहस्स उदगं से जहाण मए ( सुउसुहीमारूपण अज्जुणतरूण सरसपत्तकोमलअत्थिग्गत्तणग्ग पोंडगवरुच्छुचारिणीणं लवंगपत्तपुष्कपल्लव कक्कोलगसफल रुक्ख बहुगुच्छमुम्म कलितमलट्ठिमधुपयुर पिप्पलीफलितवल्लिवरविवर चारिणीणं, अप्पोपोटससमभूमिभागणिभय होसियाणं मुप्पेसित हातरोगपरिवजिताण पिवतसरीरिणं कालप्यमविषीर्ण वितियसतिय सामग्यसूताणं जनवरवर जच्चजण रिटुभमरपभूयसमध्यभाणं कुण्डदोहगाणं वत्यीपत्ताणं हा मधुमास कालेसरहने हो अज चातुरमेल हो तानि धीरे मधुररसन्दिपले पले मंदगतेि
"
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आगमोदय समिति से प्रकाशित जीवाभिगम सूत्र की प्रति में यह कोष्ठकान्तर्गत मूलपाठ है किन्तु टीकाकार ने इस पाठ की टीका नहीं की है अतः यह पाठ यहाँ टिप्पण में दिया गया है ।
प्र०- - खीरोदस्स णं भंते ! उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते ?
उ०- गोमा से जहा नामए रणो पाउरंत पक्वस बाउरके गोली पत्तमंदसुते उत्तर यछेडतोयवेते वण्णेण उववेते - जाव - फासेणं उववेते ।
भवे एयारूवे सिया ?
णोति सम । गोयमा । एतो इट्ठतराए चेव - जाव - अस्साएणं पण्णत्ते । - जीवा पडि. ३, उ. २, सु. १८७ ऊपर अंकित पाठ में और इस पाठ में याने दोनों पाठों में क्षीरोदसमुद्र के पानी के आस्वाद का वर्णन है, दोनों पाठों का भाव साम्य होने से एक पाठ यहाँ टिप्पण में दिया है ।