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________________ सूत्र ६७४-६७५ तिर्यक् लोक चन्द्र वर्णन चन्द्र वर्णन ससी सदस्य विसिठत्वं in ७४.० सेकेणणं भंते ! एवं बुच्चइ-चन्दे ससी चन्दे ९७४. प्र० - हे भगवन् ! चन्द्र को " शशी" किस अभिप्राय से ससी ? कहा जाता है ? 17 से तेण णं गोयमा ! एवं बच्चइ – " चन्दे ससी चन्दे ससी ।"" -भग. स. १२, उ. ६, सु. ४ उ०- गोयमा ! चन्दस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो मियंके ॐ० हे गौतम! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र के मृगाङ्क विमाणे, कंता देवा कंताओ देवीओ, कंताई आसण- विमान में मनोहर देव, मनोहर देवियां, तथा मनोज्ञ आसनसण-खंभ-भंड मत्तोवगरणाई । शयन स्तम्भ भाण्ड-पात्र आदि उपकरण हैं, और ज्योतिष्केन्द्र अपणा वियणं जन्बे जोतिसिंदे जोतिसराया सोमे ज्योतिषराज चन्द्र स्वयं भी सौम्य, कान्त, सुभग, प्रदर्शन एवं कते सुभए पियस सुरु सुरूप है। जंबुद्दीवे चंद उदयत्यमण-परूवणा १७५. १० -- ( क ) जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे चंदिमाउदीपायी पायीगं दाहिणमागच्छति ? (ख) पादीनं दाहिणमुग्गच्छ दाहिण-पादीणमा गच्छति ? (ग) दाहिण-पादीणमुग्गच्छ पादीण उदीणमागच्छंति ? (घ) पादीनं-उदीम उदीर्ण यादीगमागच्छति १ उ० – (क-घ) हंता गोर्यमा ! जबुद्दीवे गं दीवे बंदिमा उदीर्ण-पावीण पाषाणमागच्छति जपावी-उदीम उदीर्ण पादोण उदीर्णमुग्गच्छ मागच्छति । - भग. स, ५, उ. १०, सु. १ लवणसमुह-धायइड-कालोयसमुद्र- युक्खर चंद उदयत्थमण परूवणा १ (क) सूरिय. पा. २०, सु. १०८ । २ (क) जम्बु वक्ख. ७, सु. १५० । (ग) चन्द. पा. ८ सु. २६ । शशि शब्द का विशिष्टार्य ना RATORY "जच्चेव जंबुद्दीवस्स वत्तवता भणिता, सच्चेव सव्वा लवणसमुद्दपभिइ पुक्खरद्धपज्जवसाणा वि भाणितव्वा । " - भग. स. ५ . १० का संक्षिप्त पूरक पाठ, गणानुयोग ४६५ हे गौतम ! इस कारण से चन्द्र को " शशी" ( या सश्री) कहा जाता है । जम्बूद्वीप में चन्द्रमाओं का उदयास्त प्ररूपण ६७५. प्र०— (क) हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में चन्द्रईशानकोण में उदय होकर अग्निकोण में अस्त होते हैं? (ख) अग्निकोण में उदय होकर नैऋत्यकोण में अस्त होते हैं ? (ग) नैऋत्यकोण में उदय होकर वायव्यकोण में अस्त • होते हैं ? (घ) वायव्यकोण में उदय होकर ईशानकोण में अस्त होते हैं ? उ० (क-घ) हाँ गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में चन्द्रईशानकोण में उदय होकर अतिकोप में अस्त होते हैंयावत्-वायव्यकोण में उदय होकर ईशानकोण में अस्त होते हैं। लवणसमुद्र घातकीखण्ड कालोदसमुद्र-पुष्करार्ध में चन्द्रमाओ के उदयास्त का प्ररूपण-:. "जो जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में कहने योग्य कहा गया है वही लवणसमुद्र आदि से पुष्करार्धद्वीप पर्यन्त के सम्बन्ध में कहना चाहिए । (ख) चन्द. पा. २० सु. १०५ । (ख) सूरिय. पा. ८, सु. २६ ॥
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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