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________________ ४६६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : चन्द्र वर्णन सूत्र ६७६ चंदस्स परिवुड्ढि-परिहाणी६७६. गाहाओ केणइ वड्ढइ चन्दो? परिहाणी केण हुन्ति चन्दस्स ? कालो वा जोण्हो वा, केणऽणुभावेण चन्दस्स? । किण्हं राहु विमाणं, णिच्चं चंदेण होइ अविरहियं । चउरंगुलमसंपत्तं, हिच्चा चन्दस्स तं चरइ ॥ बावळिं बावठिं, दिवसे दिवसे तु सुक्कपक्खस्स । जं परिवड्ढइ चन्दो, खवेइ तं चेव कालेणं ॥' चन्द्र की हानि-वृद्धि६७६. गाथार्थ प्र०-चन्द्र की हानि किसके निमित्त से होती है ? चन्द्र की वृद्धि किसके निमित्त से होती है ? चन्द्र का प्रभास काल किसके निमित्त से घटता बढ़ता है ? और चन्द्र की ज्योत्सना किसके निमित्त से घटती बढ़ती है ? उ०-राहु का कृष्ण विमान चन्द्र विमान का स्पर्श किए चार अंगुल छोड़कर नीचे नित्य निरन्तर गति करता है। उ०—-शुक्ल पक्ष में चन्द्र का प्रतिदिन बासठवां भाग (राहु से अनावृत्त होकर) बढ़ता जाता है और कृष्ण पक्ष में चन्द्र का बासठवाँ भाग (राहु से आवृत्त होकर) घटता जाता है। पन्द्रह दिन चन्द्र के पन्द्रह भाग क्रमशः राहु के पन्द्रह भागों से अनावृत होते रहते हैं। पन्द्रह दिन चन्द्र के पन्द्रह भाग क्रमश: राहु के पन्द्रह भागों से आवृत होते रहते हैं । इस प्रकार चन्द्र की वृद्धि और हानि प्रतिभासित होती है और इसी कारण से चन्द्र का कृष्ण पक्ष तथा शुक्ल पक्ष होता है। पण्णरसइ भागेण य चन्दे पण्णरसमेव तं वरइ । पण्णरसइ भागेण य, पुणो वि तं चेवऽवक्कमइ ॥२ एवं वड्ढइ चन्दो, परिहाणी एवं होइ चन्दस्स ।' कालो वा जोण्हो वा, एवंडणुभावेण चन्दस्स ॥ -सूरिय. पा. ३६, सु. १०० १ (क) सम. स. ६२, सु. ३ । (ख) "बावट्ठि" मित्यादि, इह द्वाषष्टिभागीकृतस्यचन्द्रविमानस्य द्वौ भागावुपरितनावपाकृत्य शेषस्य पंचदशभागे हुते ये चत्वारो भागा लभ्यन्ते, ते द्वाषष्टिशब्देनोव्यन्ते, "अवयवे समुदायोपचारात्" एतच्चव्याख्यानम् । अस्या एव गाथाया व्याख्याने जीवाभिगम चूणि"चन्द्रविमानं द्वाषष्टिभागी क्रियते, ततः पंचदशभिर्भागो हियते, तत्र चत्वारो भागा द्वाषष्टिभागानां पंचदशभागेन लभ्यन्ते शेषौ द्वौ भागौ, एतावद् दिने दिने शुक्लपक्षस्य राहुणा मुच्यते' “यत् समवायांग सूत्रे उक्तम्"-सुक्कपक्खस्स दिवसे दिवसे चन्दो बाढ़ि भागे परिवड्ढइ, त्ति तद्येवमेव व्याख्येयम् । "शुक्लपक्षस्य दिवसे दिवसे द्वाषष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् परिवद्ध ति" । "काले-कृष्णपक्षे दिवसे दिवसे तानेव द्वाषष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् क्षपयति, परिहापयति" । २ "पण्णरस" इत्यादि कृष्ण पक्षे प्रतिपद् आरभ्यालीयेन पंचदशेन भागेन प्रतिदिवसमेकेकं पंचदशभागमुपरितनभागादारभ्याबृणोति । शुक्लपक्षे तु प्रतिपद् आरम्भ तेनैव क्रमेण प्रतिदिवसमेकैकं पंच दशभागं प्रकटीकरोति । तेन जगति चन्द्रमंडल वृद्धि-हानि प्रतिभासेते, स्वरूपतः पुनश्चन्द्रमण्डलावस्थितमेव । "एवं वड्ढइ” इत्यादि, एवं-राहविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणानावरणतो बर्द्ध ते, बद्धमानःप्रतिभासते चन्द्रः एव राहविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणावरणकरणतः प्रतिहानिःप्रतिभासो भवति चन्द्रस्य विषये । "एतेनैनानुभावेन कारणेन एकःपक्षःकाल कृष्णो भवति, यत्र चन्द्रस्य परिहानिः प्रतिभासते । एकस्तु ज्योत्स्नः शुक्लो यव चन्द्रविषयो वृद्धिप्रतिभासः" ४ (क) जीवा. प. ३, उ. २, सु. १७७ । (ख) चन्द. पा. १६ सु. १०० ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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