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________________ सूत्र १६०-१६१ अधोलोक गणितानुयोग ७६ जोयणसयसहस्स-बाहल्लाए उरि एग जोयण- मोटाई वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन सहस्सं ओगाहित्ता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं अवगाहन करने पर और नीचे से एक हजार योजन छोड़ने पर बज्जित्ता, मज्झे अदृहत्तरे जोयणसयसहस्से- एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रमाण मध्यभाग में दक्षिण एत्य णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं दिशा के असुरकुमार देवों के चौंतीस लाख भवनावास हैं । ऐसा चोत्तीसं भवणावाससयसहस्सा भवंतीति कहा गया है। मक्खायं। ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा सोच्चेव ये भवन बाहर से वृत्ताकार, अन्दर से चतुष्कोण हैं (यहाँ) वही वण्णओ (जाव) पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा वर्णक है यावत प्रसन्नता जनक दर्शनीय अभिरूप एवं प्रतिरूप हैं। पडिरूवा - एत्य णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं इनमें दक्षिण दिशा के पर्याप्त तथा अपर्याप्त असुरकुमार देवों के पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। स्थान कहे गये हैं। [२] तिस वि लोयस्स असखेज्जइभागे-तत्थ णं [२] लोक के असंख्यातवें भाग में (असुरकूमार देवों बहवे दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा य देवीओ य की उत्पत्ति समुद्घात तथा उनके स्वस्थान) तीनों हैं। परिवसंति । इनमें दक्षिण दिशा के अनेक असुरकुमार देव-देवियाँ रहते हैं । काला लोहियक्खबिबोटा तहेव जाव दिव्वाइं ये श्यामवर्ण वाले हैं, इनके ओष्ठ बिम्बफल जैसे रक्त हैं। भोगभोगाई भुंजमाणा विहरति । यावत् दिव्य भोग भोगते हुए रहते हैं । -पण्ण पद० २, सु० १७६ (१)। दाहिणिल्लअसुरिंदो चमरो-- १७१: चमरे अत्थ असुरकुमारिदे असुरकुमारराया परिवसइ। दाक्षिणात्य असुरेन्द्र चमर१६१ : यहीं पर असुरकुमारेन्द्र असुरकुमारों के राजा चमरेन्द्र रहते हैं। चमरेन्द्र के शरीर का वर्ण कृष्ण अतिनील नीलगुटिका, जंगली भैस के सींग तथा अलसी के पुष्पों जैसा श्याम है। नेत्र विकसित कमल सदृश प्रवेत तथा स्वल्परक्त ताम्रवर्ण काले महानीलसरिसे णीलगुलिय-गवल-अयसिकुसुमप्पगासे, वियसियसयवत्त-णिम्मल-इसीसित-रत्त-तंबणयणे, गहलायय उज्जुतुंगणासे, ओयवियसिलप्पवाल-बिबफल-सन्निभाहरो?, पंडरससिसगल-विमल-निम्मल - दहिघण-संख-गोखीर-कुंददगरय-मुणालिया-धवल दंतसेढो, हुयवहणिद्धतघोयतत्ततवणिज्ज-रत्तताल-तालु जीहे, अंजण-घण-कसिणरुयगरमणिज्जणिद्धकेसे, वामेयकुंडलधरे, अद्दचंदणाणुलित्तगत्ते, इसीसिलिधपुप्फपगासाइं असंकिलिट्टाई सुहुमाई वत्थाई पवरपरिहिए, वयं च पढम समइक्कते, बिइयं तु असंपत्ते, भद्दे जोवणे वट्टमाणे, तलभंगयतडिय-पवरभसण-निम्मलमणि-रयणमंडियभुजे, नासिका गरुड जैसी लम्बी सीधी एवं उन्नत है। अधरोष्ठ घिसी हुई प्रवाल-शिला तथा बिम्बफल जैसे हैं । दन्तपक्ति अकलंक श्वेतचन्द्र खण्ड, स्वच्छ घट्ट (गाढा) दही, शंख, गोक्षीर, कुंद-पुष्प, उदक-कण तथा मृणालिका जैसी श्वेत है। हाथ-पैर के तलवे, तालु और जीभ अग्नि में तपाये हुए शुद्ध स्वर्ण सदृश हैं। केश अंजन, मेघ और रुचक रत्न जैसे रमणीय एवं स्निग्ध हैं। बायें कान पर एक कुण्डल है । शरीर चन्दनके लेप से लिप्त है। शिलिंध्र पुष्प जैसे थोड़े लाल वर्ण के सूखद सक्षम श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए हैं। प्रथमवय (कुमारावस्था) बीत गयी है और युवावस्था पूर्ण प्राप्त नहीं हुई है किन्तु कल्याणकर युवावस्था प्रारम्भ हुई है। भुजाय निर्मल मणिरत्न मण्डित तलभंग तथा टित (भजबन्ध) श्रेष्ठ भूषण से विभूषित है। १. सम० ३४, सु० ५। २. जीवा० पडि० ३, उ०१, सु०११७ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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