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सूत्र २७-२८
ऊर्व लोक : अनुत्तरोपपातिक देवों के स्थान
गणितानुयोग
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तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे।
(१) उपपात, (२) समुद्घात और (३) स्वस्थान की अपेक्षा
से ये तीनों लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। उ०-तत्थ णं बहवे मज्झिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति । उ०—इनमें अनेक मध्यम ग्रैवेयक देव रहते हैं ।
सव्वे समिड्ढीया-जाव-अहमिदा णामं ते देवगणा वे सब समान ऋद्धि वाले हैं-यावत्-हे आयुष्मान् श्रमण !
पण्णत्ता समणाउसो! -पण्ण. प. २, सु. २०८ वे देव अहमिन्द्र कहे गये हैं । प०-कहि णं भंते ! उवरिमगेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताऽ- प्र०-भगवन ! पर्याप्त और अपर्याप्त उपरितन ग्रैवेयक देवों पज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ?
के स्थान कहां कहे गये हैं ? प०--कहि णं भंते ! उवरिमगेवेज्जगदेवाणं परिदसति ? प्र०-भगवन् ! उपरितन |वेयक देव कहां रहते हैं ? उ०-गोयमा ! मज्झिमगेवेज्जगदेवाणं उप्पि बहूइं जोयणाई उ०-गौतम ! मध्यम अवेयकों के ऊपर अनेक योजन
-जाव-बहुगीओ जोयणकोडाकोडीओ उड्ढे दूरं -यावत्-अनेक क्रोडाक्रोड योजन ऊपर दूर जाने पर उपरितन उप्पइत्ता, एत्थ णं उवरिमगेवेज्जगाणं देवाणं तओ ग्रैवेयकों के तीन विमान प्रस्तट कहे गये हैं । गेवेज्जगविमाणपत्थडा पण्णत्ता। पाईण-पडीणायया जहा हेट्रिमगेवेज्जगाणं ।
पूर्व-पश्चिम में लम्बे-यावत्-अधस्तन ग्रेवेयकों के जैसे हैं । णवरं-एगे विमाणावाससए भवंतीति मक्खायं । विशेष—एक सौ विमान कहे गये हैं। सेसं तहेव भाणियव्वं जाव-अहमिदा णाम ते देवगणा शेष सब पूर्ववत् कहना चाहिए-यावत्-हे आयुष्मान्
पण्णत्ता समणाउसो! -पण्ण. प. २, सु. २०६ श्रमण ! वे देव अहमिन्द्र कहे गए हैं। अनुत्तरोववाइयाणं देवाणं ठाणाई
अनुत्तरोपपातिक देवों के स्थान२८. प० - कहि णं भंते ! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्ता:- २८. प्र०- भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त अनुत्तरौपपातिक पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता?
देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प०- कहि णं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति ? प्र०-भगवन् ! अनुत्तरोपपातिक देव कहाँ रहते हैं ? उ०-गोयमा ! गेविज्जगविमाणाणं उप्पि बहूई जोयणाई- उ०-गौतम ! वेयक विमानों के ऊपर अनेक योजन
जाव-बहुगीओ जोयणकोडाकोडीओ उड्ढे दूरं -यावत्-अनेक क्रोडाक्रोड योजन ऊपर दूर जाने पर रजरहित उप्पइत्ता, एत्थ णं नीरया-जाव-विसुद्धा पंचदिसि पंच -यावत्-विशुद्ध पांच दिशाओं में पांच अनुत्तर महाविमान कहे अणुत्तरा महइमहालया विमाणा पण्णत्ता । तं जहा- गये हैं । यथा१. विजए, २. वेजयंते, ३, जयंते, ४. अपराजिए, (१) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, (४) अपराजित, ५. सव्वट्ठसिद्ध ।
(५) सर्वार्थसिद्ध । ते णं विमाणा सव्वरयणामया अन्छा-जाव-पडिरूवा। वे विमान सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं-यावत्-प्रतिरूप हैं । एत्थ णं अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं इनमें पर्याप्त और अपर्याप्त अनुत्तरोपातिक देवों के स्थान ठाणा पण्णत्ता,
कहे गये हैं। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइ भागे।
(१) उपपात, (२) समुद्घात और (३) स्वस्थान की अपेक्षा
से ये लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । उ.-तत्थ णं बहवे अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति । उ०-इनमें अनेक अनुत्तरोपपातिक देव रहते हैं ।
सध्वे समिढीया-जाव-अहमिदा णामं ते देवगणा सब समान ऋद्धि वाले है-यावत्-हे आयुष्मन् श्रमण ! पण्णत्ता समणाउसो!
वे देव अहमिन्द्र कहे गये हैं। गेवेज्जगदेवाणं अणुत्तरोववाइय देवाणं य विमाणा ग्रेवेयक देवों के और अनुत्तरौपपातिक देवों के विमानों को संगहणी गाहा
संग्रहणी गाथाएक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु, सत्तुत्तरं च मज्झिमए । अधस्तन ग्रैवेयकों के एक सौ इग्यारह विमान, सयमेगे उवरिमए, पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥॥ मध्यम ग्रेवेयकों के एक सौ सात विमान,
उपरितन |वेयकों के सौ विमान, —पण्ण, प. २, सु. २१० अनुत्तरौपपातिक देवों के पांच विमान ।