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लोक- प्रज्ञप्ति
ऊर्ध्व लोक प्रवेयक देवों के स्थान
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वेजगदेवाणं ठाणाई
२७. १० - कहि णं भंते ! हेट्टिमगेवेज्जग देवाणं पज्जतापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?
प० - कहि णं भंते ! हेट्ठिम गेवेज्जग देवा परिवसंति ? उ०- गोयमा ! आरणऽच्चयाणं कप्पाणं उपि बहुई जोयणाईजात्र बहुगीओ जोयण कोडाकोडीओ उड़ढं दूरं उप्प इत्ता, एत्थ णं हेट्ठिम गेवेज्जगाणं देवाणं तओ गेवेज्जग विमाण पत्थडा पण्णत्ता ।
पाईप पीणा उदाहण वित्थिष्णा, पडिपुण्ण चंदठाणं संठिया । अच्चिमाली भासरासिवण्णाभा सेसं जहा बंभलोगे - जाव- पडिरूवा ।
सरणं हेट्टि गाणं देवानं एकारमुसरे विमाणावाससए भवतीति मक्खायं ।
ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा-जाव- पडिरूवा । तत्थ णं हेट्ठिम गेविज्जगाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता,
तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे ।
तत्य हवे वेगा देवा परिवर्तति ।
सच्चे समिडीया सवे समजुतीया सव्वे समजा सव्वे समबला सव्वे समाणुभावा महासोक्खा अणिदा अध्येता अपूरोहिया अहमिदा गामं ते देवगणा वग्गता समाणाउसो । -पण्ण. प. २, सु. २०७ प० - कहि णं भंते ! मज्झिमगाणं गेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?
प० - कहि गं भंते ! मज्झिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति ? उ०- गोपमा ! हेमिवेज्जगाणं उप्प सपविणं सपडिसि जोयथाई जाव बगीओ जोयण फोडाफोडीओ उड्ढं दूरं उप्पइत्ता, एत्थ णं मज्झिमगेवेज्जगदेवाणं तओ गेविज्जगविमाणापत्थडा पण्णत्ता ।
पापडीयायया जहा हेद्रिमवेज्जगाणं ।
पयरं सत्त्त्तरे विमाणायाससए हतोतिमक्यायं । . ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा-जाव- पडिरुवा । एत्थ णं मज्झिमगेवेज्जगाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ।
सम. १०१, सु. १-२ ।
सूत्र २७
ग्रैवेयक देवों के स्थान -
२७. प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त अधस्तन ग्रैवेयक चिक के देवों के स्थान कहाँ कहे गये है?
प्र०—भगवन् ! अधस्तन ग्रैवेयक त्रिक के देव कहाँ रहते हैं ? उ०- गौतम ! आरण-अच्युत कल्पों के ऊपर अनेक योजन - यावत् - अनेक क्रोडाक्रोडी योजन ऊपर दूर जाने पर अधस्तन ग्रैवेयक देवों के तीन विमान प्रस्तर कहे गये हैं ।
वे पूर्व-पश्चिम में लम्बे, उत्तर-दक्षिण में चौड़े हैं। प्रतिपूर्ण चन्द्र के आकार से स्थित हैं. सूर्य के किरण समूह सदृश प्रभा वाले हैं। शेष ब्रह्मलोक जैसे हैं यावत्प्रतिरूप हैं।
वहाँ अधस्तन ग्रैवेयक देवों के एक सौ इग्यारह विमान कहे गये हैं ।
वे विमान सर्व रत्नमय हैं स्वच्छ हैं- यावत् — प्रतिरूप हैं । उनमें पर्याप्त और अपर्याप्त अधस्तन ग्रैवेयक देवों के स्थान कहे गये हैं
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(१) उपपात, (२) समुद्घात और ( ३ ) स्वस्थान की अपेक्षा से वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं ।
वहाँ अनेक अधस्तन ग्रैवेयक देव रहते हैं ।
सब समान ऋद्धि वाले, समान द्युति वाले, समान यश वाले समान बल वाले, समान प्रभाव वाले हैं। उनके इन्द्र नहीं हैं, उनके प्रेध्य देव नहीं हैं, उनके पुरोहित देव नहीं हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे देव अहमेन्द्र कहे गये हैं ।
प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त मध्यम ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ?
प्र० - भगवन् ! मध्यम ग्रैवेयक देव कहाँ रहते हैं ?
उ०- गौतम ! अधस्तन ग्रैवेयकों के ऊपर समान दिशा में समान विदिशा में अनेक योजन यावत् अनेक कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाने पर मध्यम ग्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर कहे गये हैं ।
पूर्व-पश्चिम में लम्बे, उत्तर-दक्षिण में चौडे अधस्तन ग्रैवेयकों के समान हैं ।
विशेष- एक सौ सात विमान कहे गये हैं,
वे विमान सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं - यावत्-प्रतिरूप हैं । इनमें पर्याप्त और अपर्याप्त मध्यम ग्रैवेयक देवों के स्थान कहे गये हैं।