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________________ सूत्र १०३७-१०३८ १ तिर्यक लोक सूर्य की एक मंडल से दूसरे मंडल में संक्रमण क्षेत्र-पति गणितानुयोग ५३३ लेस अर्थ विलेसे ता जेणंतरेणं मण्डलाओ मण्डलं संकममाणे सूरिए कण्णकललं निव्वेढेइ एवइयं च णं अद्धं पुरओ गच्छछ, पुरओ गच्छमाणे मण्डलकालं न परिहवेइ, तेसि णं अर्थ विसेसे सत्य जे ते एमासु मण्डलाओ मण्डल संकममाणे सूरिए कण्णकलं निब्बेढेइ एएणं प्पएणं णेयव्वं, णो चेव णं इयरेणं, ' - सूरिय० पा० २, पाहू. २, सु० २२ सूरस्स एगमेगे राईदिए मण्डलाओ मण्डलसंकमणखेत चार ३८. ५० - ता केवइयं ते एगमेगे णं राइदिए णं विकंपइत्ता विपत्तारिए बारं बरह ? आहितेति वदेना । उ०- तत्थ खलु इमाओ सत्त पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा तत्येगे एमा १. ता दो फोगाई अचालीसे तेसो सवमागे जोपणस्स एयमेगे गं राईदिए णं विकंपडत्ता विकंप इत्ता, सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - २. ताई जोवणाई एम मेगे राइदिए विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरइ । एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु ३. ता तिभागूणाई तिन्नि जोयणाई एगमेगे णं राइदिए विपदा विपहला सूरिए चारं चर एगे एवमाहंगु एगे पुण एवमाहं - ४. ता तिणि जोयणाई अद्धसीतालीस च तेसीइसयभागे जोयस्त एगमेगे णं राईदिए णं विरूपता विरूपता सूरिए चार चरइ, एगे एवमाहसु, चन्द. पा. २, सु. २२ । उनकी इस मान्यता में यह विशेषता है एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण करता हुआ सूर्य जितने समय में कर्ण ( मंडल के प्रारम्भ से द्वितीय मंडल के प्रारम्भ पर्यन्त (एकेक) कला (समय का विभाग) से मंडल को छोड़ता है उतने ही समय में आगे ( अन्य मंडल पर्यन्त) वह पहुँच जाता है । आगे ( अन्य मंडल पर्यन्त) जाने पर मंडल में गति करने का काल समाप्त नहीं होता है ( अतः सर्वविदित दिन-रात का निश्चित प्रमाण भंग नहीं होता है । उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं " सूर्य एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण करता हुआ कर्ण कला से मंडल को छोड़ता है" । इस अभिप्राय के अनुसार ही हमारा मन्तव्य जानना चाहिए । अन्य मन्तव्य के अनुसार नहीं। प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य की एक मंडल से दूसरे मण्डल में संक्रमण क्षेत्र की गति ३८ प्र० - प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुँचने में कितने क्षेत्र को पार करता है ? कहें । उ० – इस सम्बन्ध में ये सात प्रतिपत्तियाँ ( मतान्तर ) कही गई हैं, यथा (१) इनमें से एक (मत वालों ने ऐस कहा है। प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुंचने में दो योजन और एक योजन के एक सौ तिरासी भागों 1. में से साढ़े इकतालीस भाग जितने क्षेत्र को पार करता है । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा हैं (२) प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुँचने में अढाई योजन जितने क्षेत्र को पार करता है । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (३) प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुंचने में (एक योजन के एक सौ तिरासी भागों में से) तीन भाग कम तीन योजन जितने क्षेत्र को पार करता है । एक (मत वालों ने फिर ऐसा कहा है (४) प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुंचने में तीन योजन और एक योजन के एक सौ तिरासी भागों में से साडे छियालीस भाग जितने क्षेत्र को पार करता है ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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