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________________ १५४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १०७-११२ कविसीसगाणं वण्णं पमाण य कंगूरों का वर्ण और प्रमाण१०७. से णं पागारे जाणाविह पंचवर्णोहि कविसीसएहि उवसोभिए, १०७. इस प्राकार पर अनेक प्रकार के पंचरंगी कंगूरे शोभायमान तं जहा-किण्हेहि-जाव-सुविकलेहि । हो रहे हैं, यथा-कृष्णवर्ण के यावत् श्वेत वर्ण के । तेणं कविसीसका अद्धकोसं आयामेणं पंचधणुसयाई ये कंगूरे आधे कोस के लम्बे और पांच सौ धनुष के चौड़े हैं विवखंभेणं, देसोणमद्धकोस उडढं उच्चत्तेणं, सव्वमणिमया और कुछ कम आधे कोस के ऊँचे हैं, ये सभी अगूरे सर्वात्मना अच्छा-जाव-पडिरूवा । मणियो से बने हुए, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३५ विजयारायहाणीए एगमेगाए बाहाए पणवीसं दारसयं- विजया राजधानी की प्रत्येक बाहा में एक सौ पच्चास द्वार१०८. विजयाए णं रायहाणीए एगमेगाए बाहाए पणुवीसं पणुवीसं १९८. विजया राजधानी की एक-एक बाहा में एक सौ पच्चीस दारसयं भवतीतिमक्खायं । एक सौ पच्चीस द्वार होते हैं, ऐसा कहा गया है। तेणं दारा बाढि जोयणाई अद्धजोयणं च उड्ढं उच्चत्तेणं, ये प्रत्येक द्वार साढ़े बासठ योजन के ऊँचे, इकतीस योजन एक्कतीसं जोयणाई कोसं च विखंभेणं, तावतियं चैव पवेसेणं, और एक कोस के विस्तार वाले हैं, और उतना ही विस्तार वाला सेया वरकणगथूभियागा ईहामिय० तहेव जहा विजए दारे प्रवेश मार्ग है, श्वेतवर्ण वाले हैं, और श्रेष्ठ सोने से बनी हुई -जाव- तवणिज्ज वालुगपत्थडा, सुहफासा, सस्सिरीया, स्तूपिकाओं-शिखरों से मंडित हैं, तथा इहामग आदि के चित्रामों सरूवा, पासाईया-जाव–पडिरूवा । से चित्रित आदि जैसा वर्णन विजयद्वार का पूर्व में किया गया है उसी प्रकार इनका भी वर्णन करना चाहिये यावत् तपनीय स्वर्णमय बालुका बिछी हुई है, सुखद स्पर्श वाले, सश्रीक, रूप सम्पन्न, दर्शनीय यावत् पतिरूप है। १०६. तेसि णं दाराणं उभयपासिं दुहओ णिसीहियाए दो चंदण- १०६. इन द्वारों के दोनों ओर की दोनों नषेधिकाओं पर दो-दो कलसपरिव डोओ पण्णत्ताओ, तहेव भाणियब्वं-जाव- चन्दन कलशों की श्रेणियाँ कही गई हैं, इनका वर्णन भी पूर्व की वणमालाओ। -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३५ तरह कहना चाहिये यावत् वनमालायें हैं। पगंठगाणं पमाणं प्रकंठकों का प्रमाण११०. तेसि णं दाराणं उभओ पासि दुहओ णिसीहिआए दो दो ११०. इन द्वारों के उभय पार्श्व की दोनों नैषिधिकाओं में दो-दो पगंटगा पण्णत्ता, तेणं पगंठगा एक्कतीस जोयणाई कोसं च प्रकण्ठक पीठ विशेष कहे गये हैं, वे प्रकंठक एक कोस अधिक आयाम-विक्खंभेणं, पण्णरसजोयणाई अड्ढाइज्जे कोसे इकतीस योजन के लम्बे-चौड़े हैं, ढाई कोस अधिक पन्द्रह योजन वाहल्लेणं पण्णत्ता । सव्ववइरामया अच्छा-जाव-पडिरूवा । के मोटे कहे गये हैं, तथा सर्वात्मना वजरत्नों से बने हुए, स्वच्छ -जीवा०प०३, उ०१, सु० १३५ यावत् प्रतिरूप है। पासायडिसगाण पमाणं प्रासादवतंसकों का प्रमाण१११. तेसि णं गठगाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं पासायडिसगा पण्णत्ता। १११. इन प्रत्येक प्रकठकों के ऊपर एक-ए: प्रासादवतसक कहे तेणं पासायडिसगा एक्कतीसं जोयणाई कोसं च उई उच्च- गये हैं, ये प्रत्येक प्रासादावतंसक ऊँचाई में एक कोस अधिक तेणं पण्णरसजोयणाई अढाइज्जे य कोसे आयाम-विक्वंभेणं इकतीस योजन ऊँचे, अढाई कोस अधिक पन्द्रह योजन के लम्बेसेसं तं चेव-जाव-समुग्गया। णवरं-बहुवयण भाणि- चौड़े हैं, शेष वर्गन समुद्गक पर्यन्त पूर्व की तरह समझ लेना यवं । चाहिये, लेकिन अन्तर इतना है कि विजयद्वार के वर्णन में एक वचन का प्रयोग है और यहाँ बहुवचन का प्रयोग करना चाहिये। ११२. विजयाए णं रायहाणीए एगमेगे दारे अट्ठसयं चक्कझयाणं ११२. विजया राजधानी के प्रत्येक द्वार के ऊपर एक सौ आठ -जाव-अट्ठसयं सेयाणं चउविसाणाणं णागवरकेऊणं, चक्र के चिह्न से अकित ध्वजायें हैं यावत् श्रेष्ठ नाग के केतुभूत श्वेत चार दन्तों की आकृति के चिह्न से अंकित एक सौ आठ
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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