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________________ सूत्र ११२-११५ ११२. विजया २१५. एवामेव सपुव्वावरेणं विजयाए रायहाणीए एगमेगे दारे ध्वजायें फहरा रही हैं, इस प्रकार सब मिलाकर उस विजया आसीयं आसीयं के सहस्सं भवतीतिमवखायं । राजधानी के प्रत्येक द्वार पर एक हजार अस्सी, एक हजार अस्सी. ध्वजायें कही गई हैं । - जीवा० प० ३, उ० १ सु० १३५ विजयारायहाणीए दाराण पुरओ सत्तरस भोमा राहाणीए एगमेगे दारे (तेसि पुरओ) सत्तरस भोमा पण्णत्ता । तिर्यक् लोक : विजयद्वार तेसि णं भोमाणं भूमिभागा उल्लोया य पउमलया - जावभत्तिचित्ता । ११४. सिदा तेसि णं भोमाणं बहुमज्झदेसभाए जे ते नवमनवमा भोमा । तेसि गं भीमागं बहमासभाए पत्ते पत्ते सीहासणा पण्णत्ता, सीहासण वण्णओ - जाव-दामा जहा हेट्ठा एत्थ णं अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पण्णत्ता । उपरिमागारा सोलसविरह उब सोभिया, तं चेव — जाव - छत्ताइछत्ता । एवामेव वावरेण विजयाए रायहाणी पंच दारया भवतीतिमवखायं । - जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३५ विजयारायहाणीए चउचितारि वणसंडा राहाणीए पति पंचजोपणलाई अवाहा - एत्थ णं चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहा – (१) असोग(२) सण (३) चंपवणे, (४) तय 1 (१) पुरत्थिमेणं असोगवणे, (२) दाहिणेणं सत्तवण्णवणे, (३) पश्चमे बंगवणे, (४) उत्तरेणं चूतवणे । गणितानुयोग १५५. साइरेगाई दुवाल सजोषसहस्साई आयामे पंच जोयणसयाइ विक्खंभेणं, पण्णत्ता । पत्तेयं पत्तेयं पागार परिविखत्ता किण्हा किण्होभासा, वणसंड वण्णओ भाणियन्त्रो। - जाव-बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति, संयंति, चिट्ठन्ति, णिसीदंति, तुयट्टन्ति, रमति ललंति, कोलंति, मोति, पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्कंताणं सुभाणं कम्मा काणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा विहरति । - जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३६ विजया राजधानी के द्वारों के आगे सतरह भौम ११२. विजया राजधानी के उन प्रत्येक द्वार पर (द्वार के आगे) सतरह सतरह भौम कहे गये हैं । इन भौमों के अन्दर की छत और अगासी में पद्मलता आदि. यावत् चित्राम चित्रित हैं । इन भौमो के बीचोंबीच के भाग में नोंवा भौम है । उन सब भौमों के बीचोंबीच अलग-अलग एक-एक सिंहासन कहा गया है। इन सब सिहासनों का दाम पर्यन्त का वर्णन जैसा पूर्व में विजयद्वार के वर्णन में किया है, वैसा ही वर्णन यहाँ कर लेना चाहिये, यहाँ अवशेष भौमों में से प्रत्येक में भद्रासन कहे गये हैं । ११४. इन द्वारों के ऊपर का भाग सोलह प्रकार के रत्नों से उपशोभित है, और शेष वर्णन छत्रातिछत्र विजयद्वार के वर्णन जैसा ही समझ लेना चाहिये । इस प्रकार पूर्वापर आगे-पीछे के सब मिलाकर विजया. राजधानी के पाँच सौ द्वार होते हैं, ऐसा कहा गया है । विजया राजधानी के चार दिशा में चार वनखण्ड ११५. विजया राजधानी की चारों दिशाओं में पांच सौ योजन आगे जाने पर चार वनखंड कहे गये हैं, यथा - ( १ ) अशोकवन, (२) सप्तपर्णवन, (३) चंपकवन और (४) आम्रवन । इसमें से पूर्व दिशा में अशोकवन दक्षिण दिशा में सप्तपवन पश्चिम दिशा में चंपकवन और उत्तर दिशा में आम्रवन है । ये प्रत्येक वनखंड कुछ अधिक बारह हजार योजन के लम्बे और पाँच सौ योजन के चौड़े कहे गये हैं, प्रत्येक वनखंड प्राकारकोट से घिरा हुआ है और कृष्णवर्ण जैसा प्रतीत होता है, और छाया भी कृष्ण वर्ग की है, वनखंड का वर्णन ( पूर्व में किये गये वनखंड वर्णन जैसा) कर लेना चाहिये यावत्-बहुत से वाण -- व्यंतर देव और देवियाँ जहाँ सुखपूर्वक बैठती हैं, होती हैं, खड़ी होती हैं, बैठी रहती हैं, लेटती हैं, रमण करती हैं, यथारुचि, मनोनुकूल कार्य करती है, क्रीड़ा करती है, ऐन्द्रियिक विषय सेवन करती है, और इस प्रकार से पूर्व जन्म में किये हुए आचरित सुपरित्रांत शुभ कर्मों के, कल्याण रूप फलविशेषों का उपभोग करती हुई समय व्यतीत करती है ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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