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________________ १५६ लोक-प्रज्ञप्ति पासायडसगाणं पमाणं - ११६. तेसि णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायवडगा पण्णत्ता । तेणं पासायवडेंसगा बावट्ट जोयणाई अजोय च उड़ उच्चलेणं एक्कतीस जोयणाई कोच आयाम-विषमे अमायभूसिया बजावतो बहुसमर मणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता । उल्लोया, पउमलया, भत्तिचित्ता भाणियव्वा । . तिर्यक् लोक विजयद्वार ११. सि पासाया उचि बहवे अ मंगलमा, झवा छत्तातिछत्ता । तत्य गं चलारि देवा महिड्डिया जाय-लिओयमद्वितीया परिवसंति । तं जहा – (१) असोए, (२) सत्तवण्णे, (३) चंपए, (४) भूते - ११७. सि णं पासायवडेंसगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं ११७. इन प्रासादावतंसकों में से प्रत्येक के मध्यातिमध्य भाग में सोहासणा पण्णत्ता, वण्णावासो सपरिवाए । एक-एक सिंहासन कहा गया है, भद्रासनों आदि परिवार सहित इनका वर्णन करना चाहिये । - जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३६ ११६. तत्थ णं ते साणं साणं वणसंडाणं, साणं साणं पासायवडेंसयाणं साणं साणं सामाणियाणं, साणं साणं अग्गमहिसीणं, साणं साणं परिमाणं, साणं साणं आयरक्खदेवाणं आहेवच्च जाय-विहरति । १२०. विजयाए णं राहाणीए अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव- पंचवण्णेहि मणीहि उवसोभिए - तणसद्दविणे - जाव देवा य देवीओ य आसयंति- जाव विहरति । - जीवा० प० ३ उ० १, मु० १३६ ओवरियालेणरस पमाणं १२१. तरणं समरमणिज्जरस भूमिभागस्स बनाएएत्थ णं एगें महं ओवरियालेणे पण्णत्ते, बारसजोपणसयाई आयाम विक्खंभेणं, तिनि जोयणसहस्साई सत य पंचाणउए जोएचि विसेसाहिए परिवेश, अकोर्स माह स. व जंबूणयामएणं, अच्छे-जाव- पडिवे 1 www सूत्र ११६-१२१ प्रासादावतंसकों का प्रमाण ११६. इन वनखण्डों में से प्रत्येक वनखंड के मध्यातिमध्य भाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे गये हैं, इन प्रासादावतंसकों की ऊंचाई वास योजन और अर्धकोस की है और लम्बाई-चौड़ाई एक कोस अधिक इकतीस योजन की है, ये भूमितल से ऊपर उठे हुए हैं, इत्यादि वर्णन पूर्व में आगत वर्णन के अनुरूप करना चाहिए -- यावत् अन्दर का भूमिभाग अत्यधिक समतल और रमणीय कहा गया है, ऊपर की छत पद्मलता आदि के चित्रों से चित्रित है आदि सभी वर्णन कहना चाहिए। ११८. इन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगलद्रव्य, ध्वजा, छत्रातिछत्र हैं । वहाँ पर महा ऋद्धिसम्पन्न - यावत् — पल्योपम की स्थिति वाले चार देव निवास करते हैं, यथा - ( १ ) अशोक वन में अशोक नाम का देव, (२) सप्तपर्णवन में सप्तपर्ण नाम का देव, (३) चंपकवन में चंपक नाम का देव, और ( ४ ) आम्रवन में चूत नाम का देव रहता है । ११६. ये अशोक आदि देव अपने-अपने वनखंड का अपने-अपने प्रासादावतंसक का, अपने-अपने सामानिक देवों का अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का अपनी-अपनी परिषदाओं का और अपने-अपने आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करते हुए- यावत् - सुखपूर्वक रहते हैं । १२०. विजया राजधानी का अन्तवर्ती भूमिभाग बहुत ही सम एवं रमणीय कहा गया है- यावत्-पाँच वर्णों की मणियों से उपशोभित है तुम आदि के शब्द से रहित यावत् देव और देवियाँ विश्राम करती हैं - यावत् - सुखपूर्वक समय बिताती हैं । उपकारिकालयन का प्रमाण १२१. इस बहुत अधिक सम और रमणीय भू-प्रदेश के ठीक बीचों-बीच के भाग में एक बहुत बड़ा उपकारिकालयन (सचिवालय, कार्यालय आदि) कहा गया है, जो बारह सौ योजन का सम्बा बोड़ा है और परिक्षेप विशेषाधिक तीन हजार सात सौ पंचानवें योजन का है, इसकी मोटाई आधे कोस की है, और सर्वात्मना जाम्बूनद 'स्वर्ण से बना हुआ है, स्वच्छ - यावत्प्रतिरूप है । १२२. से णं एगाए पउमवरवेड्याए, एगेणं वणसंडेणं सवओ समंता १२२. यह उपकारिकालयन एक पद्मवर वेदिका और एक वनखंड से चारों ओर सर्वात्मना घिरा हुआ है । संपर
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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